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लिखा है- संस्कारों को ललकार-ललकार कर इनसे ठाना जाने वाला युद्ध ही आगम-भाषा में कहलाता है 'तप' तथा उसके फलस्वरूप होने वाली संस्कार क्षति है निर्जरा-तत्त्व। इसमें बहुत अधिक बल लगाने की आवश्यकता है और इसीलिये इस तत्त्व को बड़े पराक्रमी तथा निर्भीक योगीजन ही मुख्यतः धारण किया करते हैं। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसको तू आंशिक रूप में भी धारण नहीं कर सकता। जितना बल लौकिक कार्यों में लगाता है, यहाँ भी लगा। शक्ति को छिपाने के लिये बहाना न बना। यह तेरे हित की बात है।
सम्यग्दृष्टि जीवों के भी समय-समय पर कर्म उदय आता है और मिथ्यादृष्टि जीवों के भी समय-समय पर कर्म का उदय आता है। ऐसी समानता होने पर तत्काल सुख-दुःख आदि फलों को भी दोनों भोगते हैं, तथापि मिथ्यादृष्टि जीव, सुख-दुःख फलोपभोग के समय, रागद्वेषादि परिणामों के कारण, पुनः नवीन कर्म का बन्धन बाँधता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव सुख-दुःख रूप फलोपभोग को कर्म के उदय में भोगता है, परन्तु उनमें राग-द्वेषादि रूप संक्लेश परिणाम नहीं करता, अतः कर्म के बन्धन को प्राप्त नहीं करता। इसलिये सदा तत्त्वज्ञान तथा वैराग्य की भावना भानी चाहिये। ऐसा करने पर नवीन कर्मबन्ध नहीं होगा तथा पुरातन कर्म जो उदय में आयेंगे वे कटेंगे ही, अतः संवरपूर्वक निर्जरा होगी।
सम्यग्दृष्टि विषय-भोगों को विषतुल्य मानता है। उसकी यह विषयविरक्ति ही उसे कर्म का संवर कराती है। विषयभोग संवर-निर्जरा स्वरूप नहीं है, किन्तु भोगों के प्रति अरुचि भाव संवर-निर्जरा का कारण है। जिसका आत्मप्रकाश जग गया है, वह भूलकर भी पर में नहीं रमता। वह पर के मध्य में क्रिया करता हुआ भी पर को स्वीकारता नहीं है।
जो साधु तप के माध्यम से कर्मों की निर्जरा करते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है और उन्हीं को मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। मैंने पूर्वजन्मों में जो पाप कमाया था, उसी का यह फल है, ऐसा जानकर जो मुनि तीव्र परीषह तथा उपसर्ग को कर्ज से मुक्त होने के समान मानता है, उसकी बहुत निर्जरा होती है। जैसे पहले लिये हुये ऋण को जिस किसी तरह चुकाना ही पड़ता है, उसमें
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