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वर्द्धमान कुमार की वीरता, युवावस्था, रूप, गुण और अनुपम सौन्दर्य को देखकर अनेक राजा-महाराजा अपनी रूपवती कन्याओं का संबंध श्री वर्द्धमान कुमार से करने के लिए महाराज सिद्धार्थ पर अपना-अपना प्रभाव डालने का प्रयत्न कर रहे थे। कलिंगदेश के महाराजा जितशत्रु की राजकुमारी यशोदा गुण, सौन्दर्य और सम्पूर्ण कलाओं में सर्वोपरि श्रेष्ठ थी। उनका प्रस्ताव आने पर महाराज सिद्धार्थ ने जितशत्रु को वर्द्धमान के परिणय संबंध की स्वीकृति भी दे
दी।
उसी समय माता त्रिशला और पिताजी ने वर्द्धमान कुमार को बुलाकर बड़े प्रेम से समझाया- बेटा! हम लोगों की बस एक छोटी-सी ही कामना है, तुमसे एक ही इच्छा है। मुझे आशा है कि तुम माता-पिता की इस तुच्छ इच्छा को अवश्य पूर्ण करोगे। हम चाहते हैं कि जो मार्ग प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ ने अपनाया था, उसी मार्ग को तुम अपनाओ। हम सब अब इस भवन में विवाहोत्सव देखना चाहते हैं। जैसा कि अदिनाथ ने भी किया था। उसे स्वीकार करके हमारी उमंग पूरी कर दो बेटा।
वर्द्धमान कुमार यह सबकुछ सुनकर गम्भीर होकर बोले-पूज्यवर! आज तक किसकी इच्छायें पूर्ण हो सकी हैं? इस इच्छापूर्ति के चक्कर में ही तो जीव दुःखी हो रहा है। फिर आप मेरी तुलना भगवान् आदिनाथ से कर रहे हैं, जिनकी तुलना में हमारी आयु समुद्र के सामने बूंद के बराबर भी नहीं है। इस अल्प- सी आयु में यदि हम कीचड़ में फंस जायें तो अपना कार्य कब कर सकेंगे? हम अनादिकाल से इस कीचड़ में फंसते आ रहे हैं। इसीलिये भवभ्रमण करते हुये दुःखी हो रहे हैं। यह भव तो भव का नाश करने के लिये मिला है, भवभ्रमण के लिये नहीं। मनुष्य मूर्खता वश अपने स्वर्ण अवसर को हाथ से खो बैठता है। क्या आप चाहते हैं कि वही मूर्खता मैं करूँ? अब तो मुझे मुक्ति वधु के वरण की तैयारी करना है। मेरे जीवन का लक्ष्य अब समस्त कर्मों की निर्जरा कर मोक्ष प्राप्ति का है।
निर्जरा का अर्थ है- अंतरंग के समस्त राग-द्वेष, मोहादि विकारों को निकालकर बाहर फेंक देना अर्थात् नष्ट कर देना। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी ने
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