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निर्जरा तत्त्व
कर्मो के आंशिक झड़ने को निर्जरा कहते है। निर्जरा के दो भेद हैं- द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा । कर्म परमाणुओं का आत्मा से झड़कर अलग हो जाना 'द्रव्य निर्जरा' है तथा आत्मा के जिन विशुद्ध भावों के कारण कम परमाणु आत्मा से पृथक होते हैं 'वह 'भाव निर्जरा' है । आचार्य कुन्दकुन्द देव वारस अणुवेकरवा' में कहते हैं।
बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहिं पण्णत्रं ।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे।।। कर्म बंध को प्राप्त पुद्गल वर्गणारूप प्रदेशों का गलन निर्जरा है, ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान ने कहा हैं। जिन परिणामों से संवर होता है, उन्हीं से निर्जरा होती है ऐसा जानों।
सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा।
चदुगदियाणं पदमा वयजुत्ताणं हवे विदिया।। निर्जरा दो प्रकार की होती है। एक तो कर्मों का अपनी स्थिति पूर्ण होने के पश्चात् झड़ना, दूसरा स्थिति पूर्ण होने से पहले ही तपश्चरण द्वारा कर्मों को नष्ट करना। इनमें से पहली निर्जरा चारों गतियों में सर्व ही जीवों के होती हैं। पहली निर्जरा को सविपाक और दूसरा निर्जरा को अविपाक कहते हैं। सविपाक निर्जरा:
___ जब कर्म बंधते हैं, उसके पीछे कुछ समय उनके पकने में लगता हैं। उस पकने के काल को आबाधा काल कहते हैं। एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति के लिए सौ वर्ष का आबाधा काल है। आबाधा काल के समाप्त होने के पीछे जितनी स्थिति जिस कर्म में शेष रहती है, उतनी स्थिति के समयों में समस्त
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