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कर्मवर्गणाएँ बँट जाती हैं। बँटवारा इस तरह होता है कि पहले अधिक संख्या होती है, फिर क्रमशः कम होती जाती है, अंत में सबसे कम कर्मवर्गणाएँ रह जाती हैं। इस तरह से कर्मवर्गणाएँ समय - समय पर कम होती रहती हैं, इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं । यदि बाहरी अनुकूलता होती है, तो फल प्रगट कर ये वर्गणाएँ झड़ जाती हैं। यदि अनुकूलता नहीं होती तो बिना फल दिये ही झड़ जाती हैं। यह निर्जरा सभी संसारी प्राणियों के पायी जाती I
अविपाक निर्जरा :
तपश्चरण द्वारा कर्मों को उनके विपाक समय से या नियत पतन समय से पहले ही दूर कर दिया जाता है, इसको अविपाक निर्जरा कहते हैं । इस निर्जरा के लिए बारह प्रकार के तप का अभ्यास आवश्यक है । बहिरंग और अन्तरंग तप के रूप में तप के अधोलिखित 12 प्रकार हैं ।
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आहार का
अनशन- खाद्य, स्वाद्य, लेह, पेय इन चार प्रकार त्याग कर दिन-रात धर्म्यध्यान में समय व्यतीत करना । अवमौदर्य- भरपेट भोजन न करके यथासंभव कम भोजन करना । वृत्तिपरिसंख्यान- भिक्षा के लिए जाते समय इस प्रकार की कोई कड़ी प्रतिज्ञा करना कि अमुक प्रकार आहार मिलेगा, अमुक मोहल्ले में मिलेगा या अमुक रीति से मिलेगा तो लूँगा, अन्यथा नहीं । यदि योग्य भिक्षा विधि न मिले तो वापस वन में जाकर समताभाव के साथ उपवास करना । इस तप के करने में आशा तृष्णा का नाश होता है ।
रसपरित्याग - दूध, दही, घी, मीठा, लवण (नमक), तेल इन छः रसों में से एक या अधिक का त्याग कर देना । इन्द्रिय दमन, आलस्य परिहार (छोड़ना) तथा स्वाध्याय में आनन्द प्राप्ति के अर्थ यह तप जरूरी है । विविक्त शय्यासन- जीवों के रक्षार्थ प्रासुक क्षेत्र में ब्रह्मचर्य पालन तथा स्वाध्याय, ध्यानाध्ययनादिक क्रियाओं का निर्विहन करने के लिए पर्वत गुफा, वसतिका, श्मशान भूमि खण्डहर आदि एकान्त स्थानों में सोने या बैठने का नाम विविक्त श्याश्न है ।
कायक्लेश- शरीर का सुखियापना मिटाने के लिए कठिन स्थानों में बैठ
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