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नहीं किया। तब राजा ने कहा अच्छा, मैं तेरा सर्व अपराध क्षमा करता हूँ, तू यथार्थ बात बतला दे । अभय की बात सुनते ही कोढ़ी रूप धारी विद्युच्चर बोला–महराज ! मैं आंभीर प्रान्त के अन्तर्गत बेनातट शहर के राजा जितशत्रु और रानी जयावती का विद्युच्चर नाम का पुत्र हूँ, और यह यमदण्ड उसी राजा के यमपाश कोतवाल का पुत्र है । मैंने बचपन में विनोद के लिये चौर्यशास्त्र का अध्ययन किया था और अपने मित्र यमदण्ड से कहा था कि जहाँ आप कोतवाली करेंगे, वहीं मैं चोरी करूँगा । हम दोनो के पिता अपना अपना कार्यभार हम लोगों को सौंपकर दीक्षित हो गये। मेरे भय से यम दण्ड यहाँ भाग आया और अपनी बचपन की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के उद्देश्य से मैंने भी यहाँ आकर चोरी का कार्य प्रारम्भ कर दिया । विद्युच्चर की बात सुनकर राजा वामरथ बड़ा प्रसन्न हुआ। विद्युच्चर अपने मित्र यमदण्ड को लेकर अपने नगर चला गया, किन्तु उसे इस घटना से वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
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संघसहित विहार करते हुए विद्युच्चर मुनिराज ताम्रलिप्तपुरी की ओर आये । संघसहित नगर में प्रवेश करने को ही थे कि वहाँ की चामुण्डा देवी ने कहा योगिराज ! अभी मेरी पूजा विधि हो रही है, अतः आप भीतर मत जाइये। इस प्रकार रोके जाने पर भी महाराजश्री अपने शिष्यों के आग्रह से भीतर चले गये और परकोटे के पास की पवित्र भूमि देखकर बैठ गये तथा ध्यानारूढ़ हो गये । अपनी अवज्ञा जानकर देवी को क्रोध आ गया और उसने कबूतरों के आकार के खून पीने वाले डॉस मच्छरों की सृष्टि करके मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया। मुनिराज ने यह उपसर्ग बड़ी शान्ति से सहन किया और अपने मन को चारों आराधनाओं में रमाते हुए मोक्ष नगर के स्वामी बने ।
चिलाती मुनिराज ने भी दंश मसक परीषह पर विजय प्राप्त कर सवार्थ सिद्धि की प्राप्ति की । राजगृह नगरी में राजा उपश्रेणिक राज्य करते थे । एक दिन वे घोड़े पर बैठकर घूमने गये। घोड़ा दुष्ट था, सो उसने उन्हें एक भयानक वन में जा छोड़ा। उस वन का मालिक यमदण्ड नाम का भील था । उसके एक तिलकवति नाम की सुन्दर कन्या थी । राजा ने उसकी माँग की। इसका पुत्र ही DU 247 S
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