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अभयमती था। इन दोनों में अत्यन्त प्रीति थी। एक दिन राजा अभयघोष घूमने जा रहे थे। रास्ते में इन्हें एक मल्लाह मिला, जो जीवित कछुए के चारों पैर बांध कर लकड़ी में लटकाये हुये जा रहा था। राजा ने अज्ञानतावश तलवार से उसके चारों पैर काट दिये। कछुआ तडफड़ाकर मर गया और अकाम निर्जरा के फल से उसी राजा का चण्डवेग नाम का पुत्र हुआ।
एक दिन चन्द्रग्रहण देखकर राजा को वैराग्य हो गया। उसने पुत्र को राज्यभार सौंपकर दीक्षा धारण कर ली। वे कई वर्षों तक गुरु के समीप रहे। इसके बाद संसार-समुद्र से पार करने वाले और जन्म, जरा, मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरुमहराज से आज्ञा लेकर और उन्हें नमस्कार करके धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विहार कर गये। इसके कितने ही वर्षों बाद वे घूमते-घूमते काकन्दीपुर आये और वीरासन से स्थित होकर तपस्या करने लगे। इसी समय कछुआचर उनका पुत्र चण्डवेग वहाँ से आ निकला और पूर्वभव (कछुआ की पर्याय) की कषाय के संस्कारवश तीव्र क्रोध से अन्धे होते हुए उस चण्डवेग ने उनके हाथ-पैर काट डाले और तीव्र कष्ट दिया। इस भयंकर उपसर्ग के आ जाने पर भी अभयघोष मुनिराज मेरू सदृश निश्चल रहे और शुक्लध्यान के बल से अक्षयानन्त मोक्ष-लाभ किया।
विद्युच्चर मुनिराज ने डंसमसक परीषह पर विजय प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में यम दण्ड नाम का कोतवाल और विद्युच्चर नाम का चोर था। विद्युच्चर चोरियाँ बहुत करता था, पर अपनी चालाकी के कारण पकड़ा नहीं जाता था। वह दिन को कुष्ठी का रूप धारण कर किसी शून्य मंदिर में गरीब बनकर रहता था और रात्रि में दिव्य मनुष्य का रूप धारण कर चोरी करता था। एक दिन उसने अपने दिव्य रूप से राजा को मोहित कर उनके देखते-देखते हार चुरा लिया। राजा ने कोतवाल को बुलाकर सात दिन के भीतर चोर को पकड़ लाने की आज्ञा दी। छह दिन व्यतीत हो जाने पर भी चोर नहीं पकड़ा गया, सातवें दिन देवी के सुनसान मंदिर में एक कोढ़ी को पड़ा हुआ देखकर कोतवाल को उस पर सन्देह हुआ और उसने उसे बहुत अधिक मार लगाई, परन्तु कोढ़ी ने अपने को चोर स्वीकार
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