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मेरी पीठ पर हैं। कितना विरोधाभास, घास में पीठ का अहसास। हाथ दिखा रहा है सामने और कह रहा है कि पैर मेरी पीठ पर है, किन्तु हाथ तो घास की तरफ और कह रहे हैं कि माँ! अभी भी पीठ पर पैर रखे हो । मुझे बहुत तकलीफ हो रही है। माँ कहती है कि मैं तो घास पर पैर रखे हूँ। तेरी पीठ पर कहाँ खड़ी हूँ? माँ! बस, इतना ही तो अंतर है। मुझे सारी दुनियाँ की आत्मायें अपनी आत्मा जैसी दिखती हैं। सारी दुनियाँ दुःखमय होती है, तो मैं भी दुःखी हो जाता हूँ और जब सारी दुनियाँ सुखमय होती है, तो मैं भी सुखी हो जाता हूँ।
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव की ऐसी ही दशा होती है । वह सारी दुनियाँ का दुःख अपनी आत्मा का दुःख मान लेता है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध तप से नहीं होता है, किसी और कारण से नहीं होता । घोर तप कर लें तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होगा । घोर उपसर्ग सहन कर लें तो भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होगा । तीर्थंकर प्रकृति का बंध उसे होता है जो दुनियाँ के प्रत्येक प्राणी की आत्मा के प्रति आत्मीय परिणाम जगाता है । अपाय विचय, विपाक विचय धर्म्यध्यान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। शुक्ल ध्यान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता । पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपातीत ध्यान में भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता । आर्त, रौद्र ध्यान में तो तीर्थकर प्रकृति का बंध संभव ही नहीं। धर्म्यध्यान में भी अपाय विचय, विपाक विचय, दो ही धर्म्यध्यान विशेष रूप से तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारण हैं। ये दो धर्म्यध्यान जब सम्यग्दृष्टि के तीव्रता पर पहुँच जाते हैं, तो उस जीव को तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है। षट्काय के जीवों की रक्षा करने के लिये मुनिराज सदा इन पाँच समितियों का पालन करते हैं ।
श्रीमद् राजचन्द्र जी ने लिखा है पैर रखते ही पाप लगता है और आँख उठाते ही जहर चढ़ता अर्थात् कहीं भी देखता हूँ तो राग-द्वेष रूपी जहर चढ़ने लगता है। अतः त्रस जीवों की रक्षा के लिए तथा राग-द्वेष से बचने के लिये इन समितियों का पालन करना अनिवार्य है। सभी को सदा ऐसी भावना भानी चाहिए कि मेरे मन से, वचन से व काय से किसी भी जीव की विराधना न हो और मेरी प्रत्येक क्रिया यत्नाचार पूर्वक हो ।
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