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परीषह जय |
धर्म मार्ग में स्थिर रहने के लिए तथा कर्मबन्ध के विनाश के लिए समस्त प्रतिकूल विचारों और परिस्थितियों को समतापूर्वक सहन करते रहकर चलना परीषह जय है । कहा है “मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परिषहाः”
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परीषह शब्द “परि” और 'षह' इन दोनों शब्दों के सम्मेलन से बना है। 'परि' अर्थात् सब ओर से, सह अर्थात् सहन करना अर्थात् आन्तरिक सद् संवेदनाओं से तथा बाह्य संयोगों-वियोगों से उत्पन्न सभी प्रकार के कष्टों तथा दुःखों को समतापूर्वक सहन करना ही परीषह जय है । परीषह 22 प्रकार के होते हैं :
1. क्षुधा 2. तृषा 3. शीत 4. उष्ण 5. दंशमशक 6. नग्नता 7. अरति 8. स्त्री 9. चर्या (चलने की) 10. निषद्या ( बैठने की) 11. शय्या 12. आक्रोश (गाली आदि) 13.वध 14. याचना ( माँगने के अवसर पर भी न माँगना) 15. अलाभ (भोजन में अंतराय आने पर संतोष ) 16. रोग 17. तृण स्पर्श 18. मल 19. सत्कार-पुरस्कार (आदर - निरादर ) 20. प्रज्ञा (ज्ञान का मद न करना) 21. अज्ञान (अज्ञान पर खेद न करना) 22. अदर्शन ( श्रद्धा न बिगाड़ना)
बाईस परीषहों को सहन करना संवर का कारण है । समतापूर्वक परीषहों को सहन करने से कर्मों का आस्रव रुकता है ।
दिगम्बर मुनिराज बाईस परीषहों को जीतने वाले होते हैं, अटूट समता के धारक होते हैं और शान्ति के पुजारी होते हैं । समताधारियों के अनेक दृष्टान्त शास्त्रों में हमें मिलते है । जैसे- गजकुमार मुनि के सिर पर अंगीठी जलाई गयी, पाण्डवों के शरीर पर लोहे को तपा - तपा कर दुर्योधन के भांजे ने गहने पहनाये, सुकमाल मुनि को स्यालिनी और उसके बच्चों ने खाया तथा पाँच सौ मुनियों को दण्डक राजा ने घानी में पिलवा डाला। इन सभी ने ऐसे अवसरों पर अटूट
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