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। समिति
मुनिराज त्रस और स्थावर जीवों को बचाने के लिए नवकोटि आरम्भ के त्यागी होते हैं। धर्म निवृत्ति रूप में आचरण ही कर्म बन्धन का विनाश करता है तो भी मुनिराजों को कुछ प्रवृत्ति रूप चलना-फिरना, खाना स्वाध्याय करना, उपदेश देना, पुस्तकादि धरना-उठाना इत्यादि कार्य करना पड़ता है। इनके लिए प्रमादरहित यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करना आवश्यक हो जाती है। इसी को समिति कहते हैं। इस प्रकार जब मुनिराज निवृत्तिरूप महाव्रत में नहीं ठहर सकते, तब भली प्रकार देखकर विचारपूर्वक मन, वचन काय से यथायोग्य श्रुतानुकूल प्रवृत्ति करते हैं। ये समितियाँ निम्न पाँच प्रकार की होती हैं।
इरिया-भासा-एसण-णिक्खेवादाणमेव समिदीओ।
पदिठावणिया य तहा उच्चरादीण पंचविहा।। ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति, प्रतिष्ठापन समिति इन पाँच समितियों में ही संसारी जीवों का सम्पूर्ण व्यवहार गर्भित हो जाता है।
1. ईर्या समिति - ईर्या का अर्थ गमन होता है। चार हाथ आगे भूमि देखकर शुद्ध मार्ग में चलना । चलने में षट्काय जीवों की विराधना नहीं करना, ईर्या समिति है।
2. भाषा समिति - हित,मित और प्रिय वचन बोलना। भाषा समिति ही मुनि को लोक में पूज्य बनाती है। सत्य वचन का आवश्यकतानुसार उच्चारण करना ही भाषा समिति है। कर्कश, गर्वयुक्त, निष्ठुर, उपहास एवं व्यर्थ भाषण नहीं करना चाहिए। इसमें वह शक्ति है, जिससे कर्म बन्धन ढीले हो जाते हैं। कषायरहित वचनों में एक प्रकार का आकर्षण हुआ करता है, इसलिए वचन बोलने में साधुओं को सदा सावधान रहना चाहिए।
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