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अपना कर्तव्य न समझ मौन रखा, किन्तु उस समय वनरक्षिका देवी ने दिव्यवाणी से अभयदान सूचक आशीर्वाद दे दिया। राजा ने तथा सबने मेरा आशीर्वाद ही समझा। कालान्तर में इसका स्पष्टीकरण भी हो गया, फिर भी उसी कारण से मुझे आज तक वचन गुप्ति की सिद्धि नहीं हुई है।
तृतीय मणिमाली मुनिराज से प्रश्न करने पर उन्होंने कहा कि मैं उज्जयिनी के श्मशान में मुर्दे के आसन से ध्यान में लीन था। तभी एक मंत्रवादी बेताली दो अन्य मुर्दो को मेरे समीप खींच लाया और मुझे मृतक समझ तीनों के सिर का चूल्हा बनाकर उसमें अग्नि जलाई और एक मृतक कपाल रखकर खीर पकाने लगा। अग्नि की ज्वाला से यद्यपि मैं नरकादि दुःखों का स्मरण करने लगा तथा आत्मा को शरीर से भिन्न चितवन करने लगा, किन्तु मेरा मस्तक हिलने से वह खीर गिर गई और अग्नि शांत हो गई। मंत्रवादी ने समझा कि कोई भूत आ गया है, इसलिए डरकर भाग गया। प्रातः गाँव से जिनदत्त सेठ आकर मुझे ले गये और तुंकारी के यहाँ से लक्षपाक तेल लाकर अनेक औषधियों से मेरा उपचार किया। तब से मुझ में अभी तक कायगुप्ति की सिद्धि नहीं हुई है।
यह सुनकर राजा श्रेणिक गद्गद् हो गया और बोला-हे भगवान्! मैंने बहुत बड़ा अनर्थ किया जो ऐसे वितरागी मुनिराजों की परीक्षा लेने गया। जो मुनि त्रिगुप्ति के पालक होते हैं, वे नियम से अवधिज्ञानी होते हैं। तीनों में से यदि एक भी गुप्ति नहीं है तो अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान इनमें से एक भी ज्ञान प्रगट नहीं हो सकता।
जो मुनिराज पूर्णतया मन, वचन, काय के व्यापारों का निरोध कर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होते हैं, वे समस्त घातिया कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञानी अरहन्त परमात्मा बन जाते हैं और बाद में चार अघातिया कर्मों का भी क्षय कर अशरीरी सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं।
__ सभी को इन तीन गुप्तियों की प्राप्ति की भावना भानी चाहिये तथा सदा अपने मन, वचन व काय को अशुभ से बचाकर धर्मध्यान में लगाये रखना चाहिये।
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