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कोटि जन्म तप तर्फे ज्ञान बिन कर्म झरें जे।
ज्ञानी के छिनमाहिं त्रिगुप्ति तें सहज टरें ते।। जितने कर्मों की निर्जरा अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों तक तप करने से करता है। उतने कर्मों की निर्जरा त्रिगुप्ति के धारी मुनिराज क्षण भर में सहज में ही कर लेते हैं।
एक बार की बात है – राजा श्रेणिक ने जैन मुनियों की परीक्षा के लिये गुप्त रीति से राजमंदिर में एक गड्ढे में हड्डी, चर्म आदि भरवा दिये और रानी से कहा कि आप इस पवित्र स्थान पर मुनियों को आहार देना। रानी चेलना ने राजा के अभिप्राय को जान लिया और धर्म का अपमान न होने पावे, इसलिये आहार के लिये आये मुनिराजों को नमस्कार करके कहा – हे मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्ति वाले पुरुषोत्तम मुनिराजो! आप आहारार्थ राजमंदिर में तिष्ठे। इतना सुनते ही तीन मुनिराज दो उंगलियों को उठाकर वापस चले गये। केवल गुणसागर मुनिराज अवधिज्ञानी थे, वे त्रिगुप्ति के धारक थे, अतः आ गये। वे भोजनालय तक गये, किन्तु अवधिज्ञान के बल से उन्हें शीघ्र ही अपवित्रता का ज्ञान हो गया और वे मौन छोड़कर स्पष्ट बात बताकर बिना आहार किये वन में चले गये। ___बाद में राजा श्रेणिक ने वापिस गये मुनिराजों से विनम्र हो उंगली उठाने के बारे में पूछा। प्रथम धर्मघोष मुनिराज बोले-राजन् । मैं एक समय कौशांबी नगरी के मंत्री गरुडबेग के घर पर आहार कर रहा था। उनकी पत्नी के हाथ से अकस्मात एक ग्रास नीचे गिर गया। उस समय मेरी दृष्टि नीचे गई, गरुडदत्ता के पैर का अंगूठा देख कर मेरे मन में अचानक मेरी पत्नी लक्ष्मीमती के अंगूठे की याद आ गई। उस समय से आज तक मुझे मनोगुप्ति की सिद्धि नहीं हुई है।
द्वितीय जिनपाल मुनिराज से प्रश्न करने पर उन्होंने कहा कि – राजा वसुपाल की वसुकांता कन्या के लिये चंड प्रद्योतन का वसुपाल के साथ युद्ध हो रहा था। वसुपाल धर्मात्मा था। उसके हारने का प्रसंग देखकर एक मनुष्य ने कहा कि दर्शनार्थ आये हुये राजा को आप अभयदान दे दीजिये, परन्तु मैंने
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