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अर्थात् जिस प्रकार भी इन्द्रिय विषय भोगों सम्बन्धी अथवा ख्याति-प्रतिष्ठा आदि सम्बन्धी बहिर्मुखी वृत्ति रोकी जा सके, उसे रोकना कर्तव्य है। वास्तव में पदार्थों को जानना अपराध नहीं है। जानने मात्र से राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते। राग-द्वेष होते हैं इष्टानिष्ट बद्धि से। देखिये आप अपने बरामदे में खड़े सड़क की ओर देख रहे हैं। अनेक पशु-पक्षी व व्यक्ति सड़क पर से गुजरते आपने देखे। कुछ परिचित थे और कुछ अपरिचित भी। कुछ देर पश्चात उसी सड़क पर देखा अपने पुत्र को आते हुये । तुरन्त यह सोचकर कि कुछ कार्य से मेरे पास ही आ रहा है, एका-एक बोल उठे-क्यों? क्या काम है? इतनी जल्दी कैसे लौट आये आज? पुत्र को देखकर यह विकल्प क्यों? कारण यही कि अन्य व्यक्तियों में थी माध्यस्थता और पुत्र में थी इष्टता। इसी प्रकार आप इन्हीं आँखों से देखते हो अस्पताल में पड़े बुरी तरह कराहते हुये अनेक रोगियों को और इन्हीं नेत्रों से देखते हो अपने रोगी पुत्र को। परन्तु जिस व्याकुलता तथा वेदना का भाव पुत्र को देखकर आप में जाग्रत होता है, वह अन्य रोगियों को देखकर क्यों नहीं होता? कारण यही कि पुत्र में है इष्टता और अन्य में है माध्यस्थता।
अब हमें यह देखना है कि ऐसी कौन-सी क्रियायें सम्भव हैं, जिनमें इष्टता-अनिष्टता को पूर्णरूप से या आंशिक रूप से अवकाश न हो। ऐसी संवररूप क्रियाएँ तीन भागों में विभाजित की गईं हैं – एक ग्रहस्थ के योग्य, दूसरी श्रावक के योग्य और तीसरी साधु के योग्य । ग्रहस्थ के योग्य क्रियाओं में 6 प्रधान हैं
देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप व दान। श्रावक के योग्य क्रियाओं में इन छ: के अतिरिक्त सम्मिलित हैं- अणुव्रत, देशव्रत तथा सामायिक । साधु के योग्य क्रियाओं में प्रधान हैं-महाव्रत, गुप्ति, समिति, दशधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप और ध्यान ।
यद्यपि आज तक इन क्रियाओं में से आप कुछ क्रियायें पहले से करते आ रहे हैं, जैसे कि देव पूजा, स्वाध्याय आदि, तदपि अंतरंग अभिप्राय ठीक न होने से उनका वह फल नहीं हुआ जो कि होना चाहिए था अर्थात् शांति। उसका कारण यह है कि या तो वे क्रियायें मिथ्या अभिप्राय पूर्वक की जा रही हैं या
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