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केवल कुलपरम्परा से, बिना समझे की जा रही हैं। सच्चे अभिप्रायपूर्वक अर्थात् भोगाभिलाष से निरपेक्ष केवल शांति की अभिलाषा सहित इन क्रियाओं को करने वाला तीनकाल में भी कभी दुखी रह नहीं सकता, ऐसा दावे के साथ कहा जा सकता है। अतः प्रत्येक क्रिया की परीक्षा अपने अभिप्राय से करते हुये चलना चाहिये। अभिप्राय पर ही जोर है, वही मुख्य है। क्रिया की इतनी महत्ता नहीं जितनी अभिप्राय की है। अतः अभिप्राय को पढ़ने का अभ्यास करना चाहिये, तभी ये क्रियायें सच्ची कहला सकती हैं। __एक उदाहरण है। किसी साधु को स्वर्ण बनाने की रासायनिक विद्या आती थी। एक ग्रहस्थ को पता चल गया। विद्या लेने की धुन को लिये वह उस साधु की सेवा करने लगा। दो वर्ष बीत गये, बहुत सेवा की, साधु ने प्रसन्न होकर उसे विद्या दे दी अर्थात वह कापी जिसमें वह उपाय लिखा था. उसे दे दी। प्रसन्नचित्त ग्रहस्थ घर लौटा, भट्टी बनाई, सारा सामान जुटाया और जिस प्रकार कापी में लिखा था करने लगा। बडी सावधानी बरती कि कहीं गलती न हो जाये, प्रत्येक क्रिया को पढ़कर किया, पर स्वर्ण न बना। फलतः श्रद्धा जाती रही। सोचने लगा कि दो वर्ष व्यर्थ ही खो दिये, साधु ने यों ही झूठमूठ अपनी ख्याति फैलाने के लिये ढोंग रचा था, सोना आदि बनाना उसे आता ही न था। कापी में भी यों ही काल्पनिक बातें मेरे मन बहलाने को लिख दीं। क्रोध में भर गया वह, पर क्रोध उतारे किस पर? साधु न सही, उसकी कापी तो है। लगा उसे जूतों से पीटने। सहसा वही साधु उस मार्ग से आ निकला। गृहस्थ की मूर्खता को देखकर सबकुछ समझ गया । बोला-इतना क्रोध करता है? भूल स्वयं करे और क्रोध उतारे कापी पर? इस बेचारी ने क्या लिया है तेरा? चल मेरे साथ, देखता हूँ कैसे नहीं बनता सोना? भट्टी के पास दोनों आये, सामान जुटाया, प्रक्रिया चालू हुई। सब ठीक था, परन्तु नीबू पड़ने का अवसर आया तो लगा चाकू लेकर नीबू काटने। साधु बीच में ही बोला-क्या करता है? नीबू काटता हूँ| कहाँ लिखा है इसमें नीबू काटना? काटना न सही, नीबू का रस तो लिखा है। बिना काटे रस कैसे निकले? साधु ने ग्रहस्थ से नीबू छीन लिया और दोनों हथेलियों के बीच साबुत का साबुत नीबू रख कर जोर से दबा दिया। रस
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