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संवर-तत्त्व
संसार के निर्माता आस्रव और बन्ध हैं तथा मोक्ष के निर्माता संवर और निर्जरा हैं। जिन भावों से कर्म बंधते हैं, उनके विरोधी भावों से कर्मं रुकते हैं। आस्रव का विरोधी संवर है। मिथ्यात्व के द्वारा आते हुये कर्मों को रोकने के लिये सम्यग्दर्शन का लाभ करना चाहिये । अविरति के द्वारा आने वाले कर्मों को रोकने के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग इन पांच व्रतों का पालन करना चाहिये। प्रमाद को रोकने के लिये चार विकथा को त्यागकर धार्मिक कार्यों में दत्तचित्त रहना चाहिये । कषायों को हटाने के लिये आत्मानुभव व शास्त्र स्वाध्याय, तत्त्व विचार, क्षमा भाव, मार्दव भाव, आर्जव भाव, संतोष भाव आदि का अभ्यास करना चाहिये। योगों को जीतने के लिये मन, वचन, काय को स्थिर करके आत्मध्यान का अभ्यास करना चाहिये। ज्ञानी को सदा जाग्रत और पुरुषार्थी रहना चाहिये। जैसे साहूकार अपने घर में चोरों का प्रवेश नहीं चाहता है, अपनी सम्पत्ति की रक्षा करता है, उसी तरह ज्ञानी को अपनी आत्मा की रक्षा बन्धकारक भावों से करते रहना चाहिये व जिन-जिन अशुभ भावों की टेव पड़ गई हो, उनको नियम या प्रतिज्ञा के द्वारा दूर करना चाहिये।
दिन में सोने की, अनछना पानी पीने की, रात्रि भोजन करने की, वृथा बकवास करने की, गाली सहित बोलने की, असत्य भाषण की, पर को ठगने की आदि जो-जो भूल से भरे अशुभ भाव अपने में होते हों, उनको त्याग करते चले जायें तो उनके त्याग करने से जो पाप का बन्ध होता वह रुक जाता है। प्रतिज्ञा व नियम करना अशुभ भावों से बचने का बड़ा भारी उपाय है। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी ने लिखा है - संवर कहते हैं प्रत्येक क्षण होने वाले नये-नये अपराध को रोक देना।
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