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'शान्तिपथ प्रदर्शन' ग्रंथ में जिनेन्द्र वर्णी जी ने लिखा है -
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इस शरीर को अपना मानकर निष्प्रयोजन इसकी सेवा में जुटे रहना, धनादिक व कुटुम्बादिक परपदार्थों की सेवा में जुटे रहना ही तो वह बन्धन है, जो स्वयं मैंनें अपने सर लिया हुआ है। यदि मैं इन पर पदार्थों की सेवा स्वयं स्वीकार न करूँ, तो कोई शक्ति नहीं कि जबरदस्ती मुझे इनकी सेवा करने को बाध्य कर सके। इन परपदार्थों की मैं स्वयं सेवा करता हूँ और पीछे पुकार करता हूँ, कि हाय-हाय इन कर्मों ने मुझे पकड़ा, कोई छुड़ाओ, कोई छुड़ाओ ।
कोई वृक्ष को दोनों हाथों से पकड़ ले और आते-जाते पथिकों से यह पुकार करे कि भाई! मेरी सहायता करो, देखो इस वृक्ष ने मुझे पकड़ा है, इससे मुझे छुड़ाओ, तो कितनी मूर्खता होगी।
देखो बन्दर की मूर्खता, शिकारी के द्वारा पृथ्वी में गाड़ी चनों से भरी हंडिया में चनों के लालच वश हाथ डाले स्वयं, चनों की मुट्ठी भरे स्वयं और बन्द मुट्ठी हंडिया के मुँह न निकल सके तो पुकार करे, हाय-हाय हंडिया ने मुझे पकड़ा, कोई छुड़ाओ, कोई छुड़ाओ ।
इसी प्रकार तोते का दृष्टांत है। वह स्वयं नलकी के ऊपर बैठता है और नलकी के घूम जाने पर गिरने के डर से उसे दृढ़ता से पकड़ लेता है । परन्तु विचार करता है कि नलकी ने मुझे पकड़ लिया है। पर फड़फड़ाता है उड़ने के लिये, परन्तु पाँव न छोड़े तो कैसे उड़े? नलकी ने मुझे पकड़ा, कोई छुड़ाओ । बस, यही दशा तो मेरी है। स्वयं दासता स्वीकार करके कहता है कि हाय ! इस दासता से मुझे छुड़ाओ । कितनी हँसी की बात है ?
इन सबकी मूर्खता पर आज मैं हँस रहा हूँ, पर खेद है कि अपनी मूर्खता मुझे दिखाई नहीं देती । शरीर, धन व कुटुम्बादिक की सेवा मैं स्वयं स्वीकार करके कोस रहा हूँ इन जड़ कर्मों को । हाय इन कर्मों ने मुझे पकड़ा है। देखो, निष्कारण तंग कर रहे हैं। अपनी शान्ति को सेवा - चाकरी में खोजने जाता हूँ । बस, इस कल्पना ने ही तो मुझे पकड़ा है। यही बन्धन हैं जो महात्माओं ने तोड़ दिये हैं। यदि मैं भी तोड़ दूँ, तो वैसा ही हो जाऊँ ।
यदि आज इस दासता को छोड़कर मैं नये-नये अपराध करना बन्द कर दूँ
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