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थोड़ी देर पहले ही चला गया है। शैलेश आया था। उसके साथ ही गया है।" दोस्त कहते हैं कि हम तो उसके ही घर से आ रहे हैं। उसके साथ तो नहीं था। माँ कहती है कि शशिकान्त, श्रीकान्त सभी उनके साथ थे, तुमने ध्यान नहीं दिया होगा। हँसमुख भाई कहते हैं कि शायद सुभाष भीतर होगा। आप भीतर जाकर देखिए तो सही। माँ कहती है कि क्या मैं झूठ बोल रही हूँ? भगवान की कसम, वो घर से अभी-अभी गया है। (लोग अपने को बचाने के लिए भगवान् को बीच में डाल देते हैं। भगवान् ही तो एक विश्वास के योग्य बचा है।)
सभी दोस्त उदास हो वापस जाने लगे। जाते-जाते कहने लगे कि सुभाष आये तो बता देना कि हम लोग आये थे। भीतर से सुभाष का मन दोस्त की ओर था। ऊपर से शरीर भीतर था और मन बाहर था। बेटा मन-ही-मन सोच रहा था कि कौन-कौन आये हैं। किसको कितना रंग लगा है। मन मित्रों में ही खोया था। जब मित्र वापिस जाने लगे तो उसने धीरे से खिड़की में से यूँ करके झाका। इधर बेटे का झांकना हुआ और उधर से मित्रों का पिचकारी चलाना हुआ। रंग खिड़की को पार करता हुआ सुभाष के ऊपर पड़ जाता है। अब सभी दोस्त घर में घुस जाते हैं और सुभाष को पकड़ कर बाहर ले जाते हैं और उसे रंग से रंग देते हैं। सुभाष का असली चेहरा गायब हो जाता है। खिड़की से झाँकना आस्रव को आमंत्रण देना है और दोस्तों के साथ रंग खेलना, गले मिलना बन्ध हो गया। जरा से परिचय से रंग की पिचकारी चल गयी और रंग की दो चार बून्दें पड़ने से रंग खेलने का भाव हो गया। और भाव पैदा हो गया तो फँस गये दोस्तों में। फँसे तो रंग-रूप ही बदल गया।
राजा भी मात्र पेड़ के नीचे बैठा था। सुभाष खिड़की के पास बैठा था। आम की गन्ध ने राजा को आकर्षित कर दिया था और दोस्तों की आवाज ने सुभाष को आकर्षित किया। राजा ने एक आम खाया और बाद में खाता ही गया। पके आम का लोभ नहीं रोक सका और अन्त में आम विजयी व राजा पराजित हो गया। इसी प्रकार की घटना हमारे जीवन में घटती है। जीवन में राग-द्वेष प्रतिदिन बढ़ता ही चला जाता है। उसकी श्रृंखला को तोड़ने का ख्याल भी नहीं आता है।
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