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चिन्ता नहीं उदय की, बन वीतराग ।।
संसारी प्राणी ने विगत समय में राग-द्वेष के कारण से कर्म का बन्ध किया है। वह कर्म पुण्य और पाप रूप से आत्मा के साथ बंधा हुआ है। जो बंधा है, भीतर संचित है, एकत्रित है, वही बाहर आ रहा है। लेकिन पुनः आत्मा के साथ संबंध को प्राप्त हो, ऐसा नियामक नहीं है। 'होगा न बन्ध तब लों, बन्ध तब तक नहीं होगा। कब तक? 'जब लों न राग' जब तक राग-द्वेष - मोह नहीं करेगा तब तक। कर्म जाते-जाते अपनी सन्तान छोड़कर जायें, ऐसा नियम नहीं है। जो वीतराग मुद्रा अपना लेता है, कर्मोदय में समता रखता है, राग-द्वेष नहीं करता है, उससे परे हो जाता है, निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है, तो कर्म का बन्ध नहीं होता। वह सन्तान रूप में अपनी छाया छोड़कर नहीं जाता। जिस समय अपने स्वभाव से च्युत हो, विस्मृत हो पर की ओर देखता है, उनसे राग-द्वेष-मोह करता है, तो उसी समय नियम से बन्ध को प्राप्त हो जाता है ।
जब कोई आपका प्रेम से स्वागत करता है, तो आपका मन रुकने का हो जाता है। कर्मबन्ध के कारण में भी ऐसा समझना चाहिए। आत्मा जब अन्तरंग भावों से कर्म को आमंत्रित करती है, तो वो काफी समय के लिए सम्बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। कर्म का बन्ध किस प्रकार होता है, एक और उदाहरण के माध् यम से समझने की कोशिश करें ।
होली का समय है। एक बेटा अपनी माँ से कह रहा है। माँ! मैं कल रंग खेलने नहीं जाऊँगा। माँ पूछती है - बेटा ! रंग खेलने क्यों नहीं जायेगा? मित्र लोग बहुत रंग लगा देते हैं। उससे काफी तकलीफ होती है। चमड़ी जलने लगती है। इसलिए हम तो रंग खेलने नहीं जायेंगे। माँ ने कहा- अच्छा, मत जाना, लेकिन तुझे भी एक काम करना पड़ेगा कि जब दोस्त घर पर आयें तो तुम छुप जाना, बाहर खिड़की से भूलकर भी मत झाँकना, मौन रहना । यदि तू इतना काम कर लेगा, तो बाकी काम मैं कर लूँगी। दोस्त आयेंगे तो उन्हें बहाने बनाकर लौटा दूँगी। दूसरे दिन उसके मित्र घर पर आ गये । द्वार बन्द थे, उन्होंने आवाज लगाई - सुभाष गाँधी है क्या ? माँ ने भीतर से ही आवाज लगाकर पूछा, कौन आया है? आंटी ! मैं बाबू भाई आया हूँ। "अरे बेटा ! सुभाष तो अभी
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