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करें, उस विपत्ति से विचलित होकर अपने सदाचार का पतन न होनें दे, बल्कि उस समय और भी अधिक दृढ़ता के साथ अपने कर्तव्य में तत्पर रहें। और मोक्षमार्ग पर सतत बढ़ते रहें । समस्त कर्मों की निर्जरा हो जाने पर जीव की शुद्ध अवस्था को मोक्ष कहते हैं I
आचार्य श्री ने मोक्ष तत्त्व का वर्णन करते हुये लिखा है - मुक्ति का अर्थ है दोषों से अपनी आत्मा को मुक्त बनाना । मुमुक्षु जीव सामायिक, प्रतिक्रमण आदि के माध्यम से अपनी आत्मा को सतत निर्दोष बनाने का प्रयास करता रहता है। निराकुलता जितनी - जितनी जीवन में आये, आकुलता जितनी - जितनी घटती जाये, उतना ही मोक्ष हुआ समझो।
जिस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, उसे अंदर से ऐसी छटा-पटी लगी रहती है कि कब चारित्र धारण करूँ | मुक्ति का मार्ग है छोड़ने के भाव । जो छोड़ देगा, त्याग करेगा, उसे प्राप्त होगी निराकुल दशा । और इसी को कहते हैं वास्तविक मोक्ष | वास्तविक मोक्ष अर्थात् निराकुलता जितनी - जितनी जीवन में आये, आकुलता जितनी - जितनी घटती जाये, उतना - उतना मोक्ष हुआ समझो ।
जितने-जितने भाग में हम राग-द्वेष आदि आकुलता के परिणामों को समाप्त करेंगे, उतने - उतने भाग में निर्जरा भी बढ़ेगी और जितने - जितने भाग में निर्जरा बढ़ेगी, उतनी - उतनी निराकुलदशा का लाभ होगा। आकुलता को छोड़ने का नाम ही है मुक्ति । इसलिये सभी को बार-बार एक-एक समय में निर्जरा को क्रमशः बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये । निर्जरा के बढ़ने से मुक्ति भी पास आती जायेगी । जो व्यक्ति समय रहते अपनी आत्मा को पवित्र बना लेता है वह सदा के लिये मुक्ति के अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है।
बौद्ध साहित्य में एक कथानक आता है। प्राचीन समय में एक ऐसा सम्राट था जिसके राज्य की सीमाओं पर भयंकर जंगल थे। चारों ओर हिंसक वन्य पशुओं की चीत्कारों और दहाड़ों आसपास के क्षेत्र आंतकित रहते थे । उस साम्राज्य की एक विचित्र प्रथा थी कि जो भी सम्राट बनता था उसके शासन की अवधि पाँच वर्ष की होती थी। शासन अवधि की समाप्ति पर बड़े धूमधाम और
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