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समारोह के साथ उस सम्राट को राज्य की सीमा पर स्थित उस भयंकर जंगल में छोड़ दिया जाता था जहाँ सिर्फ मौत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता था। इसी परम्परा की श्रृंखला में एक सम्राट को जब राजगद्दी पर बिठाया गया, तब नगरवासियों ने बड़े धूमधाम से जय-जयकारों के साथ नगर में उत्सव मनाया। परन्तु सम्राट के चेहरे पर बड़ी उदासीनता थी। समय धीमे-धीमे अपनी गति से बीत रहा था, परन्तु सम्राट की उदासीनता कम नहीं हो रही थी।
सम्राट प्रतिदिन महल के कंगूरों पर से उस जंगल को देखता और भीरत-ही-भीतर काँप उठता था। ऐसी भयभीत अवस्था में उसका मस्तिष्क साम्राज्य की व्यवस्था में लग नहीं पाता था। पाँच वर्ष समाप्त होते ही आने वाली उस मौत की भयंकर स्थिति को सोच-सोचकर वह प्रतिपल घबराता था।
एक दिन सम्राट के किसी अनुभवी मंत्री ने उसकी व्यथा का कारण पूछा, तब सम्राट ने कहा – मंत्रीवर! मैं अपने आने वाले समय को देखकर व्यथित हूँ। पाँच साल के पश्चात मेरी जो भयानक स्थिति होगी उसे सोचकर मैं अत्यन्त परेशान हूँ। पाँच साल के बाद जंगली जानवरों का भक्ष्य बन जाना पड़ेगा, ऐसी कल्पनाओं से मैं भीतर-ही-भीतर काँपता हूँ। अनुभवी मंत्री ने अपने सुदीर्घ अनुभव से उन्हें धैर्य देते हुए कहा कि राजन! पाँच वर्ष तक तो आप अखंड साम्राज्य के मालिक हैं, अतः इस मालकियत का उपयोग कीजिए। अपने अधि कारों का प्रयोग करने में आप स्वतंत्र हैं।
अनुभवी मंत्री ने सम्राट की समस्या का समाधान देते हुए कहा- महाराज! पांच वर्ष की लम्बी अवधि आपके पास है। इन पांच वर्षों में आप उन समस्त जंगलों को कटवाकर साफ करवा दीजिए। वहाँ पर नया साम्राज्य स्थापित करवा दीजिए। वहाँ अपने लिये भव्य महल एवं जनता के लिये सुविधाजनक आवास भी तैयार करवा लीजिए। उस जंगल को अभी से शहर के रूप में आबाद कर दो, ताकि भविष्य का खतरा स्वयमेव टल जायेगा जब हिंसक पशुओं के आतंक व गर्जनाओं की जगह नगर जनों के मधुर स्वागत, प्रचुर धन और ऐश्वर्य के साथ आपका राज्याभिषेक होगा। सम्राट को यह सुझाव अँच गया। तुरन्त ही उन्होंने अपने मुख्यमंत्री को
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