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है, उसका वैसा ही अनुभाग होता है। ___ ऊपर कर्मों की स्थिति बतलाई गई है। स्थिति बंध के अनुरूप आबाधा भी उसी समय पड़ती है। आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की आबाधा का सामान्य नियम यह है कि एक कोड़ा-कोड़ी सागर की स्थिति पर सौ वर्ष की आबाधा पड़ती है।
एक बार कर्म का बन्ध हो जाने पर भी उनमें बाद में तीन अवस्थायें हो सकती हैं।
1. संक्रमण – पाप कर्मों का पुण्यकर्मों में और पुण्यकर्मों का पाप कर्मों में बदलना।
2. उत्कर्षण – कर्मों की स्थिति व अनुभाग को बढ़ा देना। 3. अपकर्षण – कर्मों की स्थिति व अनुभाग को घटा देना।
यदि कोई पाप कर चुका है और वह उसका प्रतिक्रमण (पश्चाताप) बड़े ही शद्ध भाव से करता है तो पापकर्म पण्यकर्म में बदल सकता है. उसकी स्थिति व अनुभाग कम हो सकता है। परिणामों के द्वारा पिछले पाप व पुण्य कर्म में परिवर्तन हो जाता है, इसलिये हमें सदा अच्छे निमित्तों को मिलाना चाहिये।
संसार अवस्था में जो इन्द्रियजन्य ज्ञान, इन्द्रियजन्य सुख होता है, वह पराधीन होने से दुःखरूप ही है। इन्द्रियों की पराधीनता मिट जाने पर मुक्तावस्था में ही स्वाधीन स्वाभाविक अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुख प्राप्त होता है, जो कभी नष्ट नहीं होता। यह आत्मा अनादिकाल से आठ कर्मों के बंधन में पड़ी दुःख उठा रही है। बंधन सदा दुःखदाई होता है। अतः इस बंधन से मुक्त होने के लिये रत्नत्रय को धारण कर मोक्षमार्ग पर चलना चाहिये।
एक भारतीय तोता था। एक विदेशी सौदागर उसे खरीद कर अपने देश ले गया था। वह सोने के पिंजरे में कैद था। उसकी सेवा में दो-चार सेवक लगे हुये थे। एक दिन सौदागर भारत आने लगा तो उसने तोता से कहा कि मैं भारत की यात्रा पर जा रहा हूँ, तुम्हें अपने साथियों से, अपने मित्रों से, अपने संबंधियों से कुछ कहना हो, समाचार देना हो, कोई संदेशा देना हो तो कहो। उसने कहा-क्या वास्तव में मेरा संदेशा लेकर जाओगे? उसने कहा कि, जरूर ।
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