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तथा अनुभागबंध कषाय के निमित्त से होते हैं । यहाँ मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद को कषाय के अन्तर्गत लिया गया हैं । प्रारम्भ से लेकर दशवें गुणस्थान तक चारों बंध होते हैं। उसके बाद ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक मात्र प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में कोई बंध नहीं होता ।
जो आत्मा के असली स्वभाव को प्रगट नहीं होने देता, उसे कर्म कहते हैं। जो आत्मा के ज्ञानगुण को प्रकट न होने दे, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जो आत्मा के दर्शनगुण को प्रकट न होने दे, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। जो सुख - दुःख का कारण हो, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव अपने स्वरूप को भूलकर परपदार्थों में अहंकार तथा ममकार करे, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव नरकादि योनियों में परतंत्र हो, उसे आयुकर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीरादि की रचना हो, वह नामकर्म है। जिसके उदय से उच्च - नीच कुल में जन्म हो, उसे गोत्रकर्म कहते हैं और जिसके द्वारा दान, लाभ आदि में बाधा प्राप्त हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं ।
कर्मों की एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं। ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठाईस, आयु की चार, नाम की तेरान्नवे, गोत्र की दो और अन्तराय की पाँच, इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ हैं । कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबंध
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वेदनीय, अन्तराय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा-कोड़ी सागर, मोहनीय की सत्तर कोड़ा - कौड़ी सागर, नाम और गोत्र की बीस कोड़ा—कोड़ी सागर तथा आयु की तेतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है। कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध
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वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त तथा शेष समस्त कार्मों की अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थिति है।
अनुभागबन्ध का लक्षण
कर्मों का जो विपाक है, उसे अनुभाग कहते हैं । जिस कर्म का जैसा नाम
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