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बन्ध तत्व
मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि के निमित्त से आये हुये शुभ और अशुभ पुद्गल कर्मों का आत्मा के साथ दूध और पानी के समान मिलकर एक-मेक हो जाना 'बन्ध' कहलाता है। जैसे नाव में छेद के द्वारा पानी आकर इकट्ठा हो जाता है, वैसे ही कर्म आकर आत्मा के साथ बंध जाते हैं।
__ आस्रव और बन्ध यद्यपि साथ-साथ एक ही समय में होता है, तो भी इनमें कार्य-कारण का भेद है। आस्रव कारण है और बन्ध कार्य है। इसीलिये 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 25 कषाय और 15 योग जो आस्रव के कारण हैं, वही बन्छ | के भी कारण हैं। इनका वर्णन आस्रव तत्त्व में किया गया है। कर्मों का बन्ध दुःख का कारण है, अतः इन बन्धन के कारणों से बचना चाहिए । बन्ध हमेशा दो के बीच ही होता है। यह बन्ध तत्त्व ऐसा स्क्रू का कार्य कर रहा है कि जीव और पुद्गल (कर्म) अलग-अलग नहीं हो पाते। दोनों के बीच एक ऐसा बंध हो जाता है, ऐसा संबंध हो जाता है कि एक निश्चित काल के लिये न तो पुद्गल पृथक् हो सकता है और न ही आत्मा पृथक् हो सकती है। दोनों के बीच एकक्षेत्रावगाह संबंध हो जाता है अर्थात् छूट नहीं सकते वे किसी अलौकिक रसायन के बिना।
"इसका कोई न कर्ता-हर्ता,अमिट अनादि है।
जीव और पुद्गल नाचे, यामें कर्म उपाधि है।" बन्ध के चार भेद होते हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश।
ज्ञानावरणादि कर्मों के स्वभाव को प्रकृतिबंध कहते हैं। अस्तित्त्व के तारतम्य को स्थितिबन्ध कहते हैं। फलशक्ति की हीनाधिकता को अनुभागबन्ध कहते हैं तथा कर्मों के प्रदेशों की हीनाधिकता को प्रदेशबंध कहते हैं। इन चार प्रकार के बंधों में प्रकृति और प्रदेशबंध योग के निमित्त से होते हैं और स्थिति
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