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फेरते हैं। उस माला में भी 108 दाने होते हैं, जो आस्रव के इन द्वारों को बन्द करने के लिये प्रतीक हैं तथा ऊपर तीन दाने सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के प्रतीक हैं ।
आस्रव भाव अर्थात् परपदार्थों में राग-द्वेष आदि परिणाम ही जीव के अज्ञानजनित भाव हैं। ज्ञानीजीव इन भावों से बचता है। जो सम्यग्दृष्टि भेदज्ञानी हैं, वे अपने ज्ञानभाव और रागादि अज्ञानभाव में भेद करके, ज्ञानभाव को स्वीकार करते हैं, तद्रूप ही परिणत होते हैं । रागादि अज्ञान भावरूप परिणत नहीं होते ।
मोहरूप संकल्प तथा राग-द्वेष रूप विकल्प ये सब जीव के अज्ञान भाव हैं। यह जीव अपनी इस भूल के कारण ही कर्मों का आस्रव - बन्ध करता है। यदि वह अपने स्वरूप का सही बोध कर ले और किसी भी पदार्थ में राग-द्वेष भाव न करे तो, अज्ञानचेतना रहित, ज्ञानचेतना सहित वह ज्ञानी है। वास्तव में भावास्रव ही आस्रव है, क्योंकि वह जीव का परिणाम है। जब जीव अपने परिणाम सुधारकर ज्ञानरूप परिणमन करता है, तब वह अबन्धदशा को प्राप्त होता है, नवीन कर्मबन्ध का अभाव करता है तथा पुरातन बद्ध कर्म उदयावस्था को प्राप्त होकर स्वयं झर जाते हैं । आचार्य समझा रहे हैं- इन कर्मों के आने के दरवाजों को रोको, तभी संसार बन्धन छूटेगा । यदि कर्मों के आस्रव को नहीं रोका, तो संसार परिभ्रमण से नहीं छूट पाओगे । जीव को दुःख के मूलकारण ये मिथ्यात्वादि आस्रव ही हैं, अतः आस्रव के कारणों को अच्छे प्रकार से समझकर छोड़ देना चाहिये।
1912