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गुफाओं में तुम्हारा चैतन्य प्रभु छिपा बैठा है। शरीरादि नोकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और राग-द्वेषादि भावकर्म- इन तीन गुफाओं को छोड़कर अन्दर जाते ही तुम्हारा प्रभु तुम्हें अपने में दिखेगा अर्थात् तुम अपने को ही प्रभुरूप अनुभव करोगे।
आचार्यों की यह बात सुनकर परिणति अपने प्रभु को खोजने के लिये खुशी एवं उत्साह से चली। प्रथम नोकर्म की गुफा में बैठकर परिणति ने देखा, परन्तु उसे कहीं भी चैतन्य प्रभु नहीं दिखा। जब वह निराश होकर वापिस जाने लगी, तो मुनिराज ने कहा कि तू निराश मत हो, तुम्हारा प्रभु यहीं है। यदि यहाँ तुम्हारा चैतन्य प्रभु विराजमान न होता, तो इस जड़ शरीर को पंचेन्द्रिय जीव क्यों कहते? इस देह (नोकर्म) की गुफा के अन्दर दो गुफायें और हैं। वहाँ जाकर खोज, वहाँ तुम्हारा प्रभु विराजमान है। वह तुझे जरूर मिलेगा, उससे मिलकर तुझे महा आनन्द होगा।
उपकारी मुनिराज के वचनों पर विश्वास करके धीरे-धीरे वह परिणति चैतन्य प्रभु को खोजने के लिये अन्दर चली गयी और दूसरी द्रव्यकर्म गुफा में घुसकर देखा तो वहाँ उसे ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म दिखाई दिये, परन्तु चैतन्य प्रभु दिखाई नहीं दिया। तब उसने चेतना से पूछा- कहाँ है मेरा चैतन्य प्रभु?" तब चेतना कहती है कि तुम्हारे अन्दर यदि चैतन्य प्रभु विराजमान न होता तो इन पुद्गलों को 'ज्ञानावरणादि' नाम कहाँ से मिलता? अतः इस दूसरी गुफा के भी अन्दर और गहराई में तीसरी गुफा में जाकर खोजो। ___चैतन्य प्रभु से मिलने के लिये परिणति तब तीसरी भावकर्म गुफा में गयी। यहाँ उसे चैतन्य प्रभु के कुछ-कुछ चिह्न समझ में आने लगे, पर इस तीसरी गुफा में भी उसे राग-द्वेषादि भावकर्म दिखाई दिये। तब उसने चेतना से पुनः पूछा"इसमें मेरा चैतन्य प्रभु कहाँ है?" उस समय मुनिराज ने उसे चैतन्य आत्मा और राग-द्वेष के बीच भेदज्ञान करने के लिये कहा - जो यह राग-द्वेष दिखाई दे रहे हैं वह तुम्हारा स्वरूप नहीं है। तुम्हारा स्वरूप तो चैतन्यमय है। तुम्हारा चैतन्य प्रभु राग-द्वेष से पार चैतन्य गुफा में विराज रहा है।
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