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देहरूपी घर बदलता रहता है। __आत्मविभूति तो जगत में सर्वोत्कृष्ट है, उसे भूलकर आप जड़ देह में क्यों मूर्छित हो गये? आप हो विज्ञानघन आनन्दमूर्ति भगवान् । अपने को भूलकर मृत कलेवर शरीर की अवस्था से अपने आपको सुखी-दुःखी मानते हो, यह आपकी महान भूल है। ___ पैसेवाला मैं अथवा गरीब मैं – यह भी बाह्य बुद्धि है। जब शरीर भी आपका नहीं, तब धन, पुत्र, मकान आदि आपके कैसे हो गये ? उनका तो क्षेत्र भी आपसे दूर है, तो वे आपके कहाँ हो गये ? पैसे के द्वारा आप धनवान या गरीब नहीं हो, तथापि आप तो चैतन्य लक्ष्मी का निधान हो, आनन्द का भण्डार हो। जिसकी विभूति के बल पर छहखण्ड की विभूति का मोह भी क्षण भर में छूट जाये, ऐसी अनन्त चैतन्य सम्पत्ति का भण्डार आप स्वयं हो, अतः अज्ञानता छोड़कर अपने चैतन्य स्वरूप को पहचानो।
आत्मा ही उपयोगस्वरूप, अरूपी, चैतन्यमूर्ति है। इसे एक दृष्टान्त के माध यम से समझ सकते हैं। एक मनुष्य था, वह बैल के समान स्वाँग धारण करके पूछता है - "मैं मनुष्य किस प्रकार होऊँगा ?" कोई ज्ञानी पुरुष उसे समझाता है-हे भाई! तू मनुष्य ही है, तू बैल नहीं है। तू अपनी भाषा, अपनी चेष्टा, अपना रूप, अपना खान-पान आदि से देख कि त मनष्य ही है।" उसी प्रकार उपयोगस्वरूप जीव पूछता है – “मैं उपयोगस्वरूप किस प्रकार होऊँगा?"
आचार्य उसे समझाते हैं, "हे आत्मन्! तुम उपयोगस्वरूप ही हो, अन्य रूप नहीं। अपने प्रश्न करने की योग्यता से और अपनी जानने की चेष्टा से तू देख कि तू उपयोगस्वरूप ही है। विपरीत स्वाँग अर्थात् रागादि करना छोड़ दे, तो स्वयमेव उपयोगस्वरूप हो जावेगा। अपने उपयोग को बाहर में मत खोजो, अन्तर में ही देखो।"
उपयोगस्वरूप आत्मा को जानने के लिये -
प्रथम तो सर्व लौकिक संग (परिग्रह) से परान्मुख हो जाओ और अपने विचार को चैतन्य आत्मा के सन्मुख करो। तीन प्रकार की कर्म-कंदरा रूप
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