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उस परिणति ने राग-द्वेष से भिन्न होकर जब चैतन्य गुफा में देखा, तब तो वह आश्चर्यचकित रह गई, अहो ! चैतन्य प्रकाश से जगमगाता, यह है मेरा चैतन्य प्रभु ।
आचार्य समझा रहे हैं- हे भव्य जीवो! तुम भी अपने अन्दर अपने चैतन्य प्रभु को खोजो । यह जो राग-द्वेष-मोह का जाल दिखाई दे रहा है, वह उसी का प्रतिबिम्ब है, क्योंकि चैतन्य प्रभु के अस्तित्व के बिना राग-द्वेषादि भाव होना संभव नहीं हैं। राग-द्वेषादि को छोड़कर तीनों प्रकार के कर्मों से भिन्न उपयोगस्वरूप आत्म को जानने का प्रयास करो, जिसके मिलने पर तुझे अपार आनन्द होगा।
देखो, मनुष्यपर्याय तो संसार के संकटों से छूटने का उपाय बना लेने वाला समय है। कितना श्रेष्ठ जैनकुल प्राप्त हुआ है। यदि इस सुलझने के समय भी उलझन बढ़ाते रहे तो कभी संसारचक्र की उलझनों से छूट नहीं सकते। अतः व्यर्थ में समय बर्बाद मत करो और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर, श्रावकधर्म व मुनिधर्म का पालन कर मोक्षमार्ग पर चलते हुये इस मनुष्यभव रूपी रत्न की जो असली कीमत मोक्ष है, उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ करो ।
एक मनुष्य समुद्र के किनारे बैठा था । उसके हाथ में अचानक एक थैली आयी। उस थैली में रत्न भरे थे, जो उसे अन्धेरे में दिखाई नहीं दिये और वह रत्नों के साथ खेल-खेलने लगा। एक के बाद एक रत्न को समुद्र में फेकने लगा। वह जैसे ही आखरी रत्न फेकने वाला था, तभी किसी सज्जन पुरुष ने उसे आवाज दी "अरे भाई! ठहर। रत्न फेक मत देना । तेरे हाथ में कोई साधारण पत्थर नहीं है, यह तो बहुत कीमती रत्न है ।" जब थोड़ा प्रकाश हुआ और उजाले में वह मनुष्य उस सज्जन पर विश्वास करके हाथ की वस्तु को सामने लाकर देखता है, तो वह चकित रह जाता है । वह क्या देखता है कि जगमगाता हुआ महान रत्न उसके हाथ में है। तब वह विचार करने लगा "अरे रे ! मैं कितना मूर्ख हूँ। ऐसे रत्नों की तो पूरी थैली भरी थी और मैंने अज्ञानता से मूर्खता करके खेल-खेल में उन सब रत्नों को समुद्र में फेक दिया ।"
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