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मंन्दिर में, तीर्थों पर, सब जगह खोजा, परन्तु अपने अन्दर में झाँककर देख लो तो कहीं खोजना नहीं पड़ता, क्योंकि जहाँ था, वहाँ हमने खोजा ही नहीं। कबीरदास जी ने लिखा है -
ज्यों तिल माहिं तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा स्वामी तुझमें, जाग सके तो जाग।। अपने आपको पहचान कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करो अन्यथा चाहे जितना ज्ञान प्राप्त करो, क्रियायें करो, पर मोक्षमार्ग नहीं बन पायेगा।
एक बार एक व्यक्ति की बूढी माँ बीमार हो गयी। उसके एक बगीचा था, जिसकी वह देखरेख किया करती थी। वह बगीचा बहुत सुन्दर था। वह अपने बगीचे के लिये बड़ी चिंतित थी। उसकी यह हालत देखकर उसका बड़ा लड़का बोला-माँ! आपके बगीचे की देख-रेख मैं अच्छी तरह किया करूँगा। तुम बेफिक्र रहो। दूसरे दिन से वह एक-एक पत्ते की मिट्टी झाड़ने लगा, एक-एक फूल को कपड़े से पोंछने लगा। परन्तु सभी पेड़-पौधे मुरझाने लगे, पन्द्रह दिन में उसकी माँ की सारी बगिया उजड़ गई। पन्द्रह दिन बाद उसकी माँ बीमारी से ठीक होकर आई, उसने अपने लड़के से पूछा कि यह क्या हुआ?
उसने कहा कि मैंने तो एक-एक फूल पर पानी छिड़का, एक-एक पौधे को गले लगाकर प्रेम किया, परन्तु फिर भी सब सूख गये। उसकी माँ हँसने लगी और कहा कि फूलों के प्राण उनकी जड़ में होते हैं, जो दिखाई नहीं देते। पानी फूलों को नहीं देना पड़ता है, जड़ों को देना पड़ता है। फिक्र पत्तों की नहीं, जड़ों की करनी पड़ती है। इसी प्रकार से हम लोग केवल क्रियाओं पर जोर देते हैं, परन्तु उसकी जड़ का पता नहीं है। यदि सम्यग्दर्शनरूपी जड़ को श्रद्धा रूपी पानी देंगे तो हमारी सभी क्रियायें सम्यक् होंगी और मोक्षमार्ग बनेगा। हमें अज्ञानता छोड़कर भेद विज्ञानी बनाना चाहिये। यह जीव अज्ञान के कारण ही दुःखी है और उससे छुटकारे का उपाय सच्चा ज्ञान है।
एक सेठ की हवेली में रंग-रोगन का कार्य चल रहा था। सायंकाल थोड़ालाल रंग बच गया। उसे लोटे में रखकर मिस्त्री ने सेठ की लड़की को दे दिया कि इसको सुरक्षित स्थान पर रख दो, सुबह हम ले लेंगे। लड़की ने वह लोटा
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