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जिस स्वरूप साधन में मुनिराज लवलीन होते हुए साध्य की सिद्धि करते हैं, उस साधन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं है। वहाँ तो अतीन्द्रिय आनन्द है कि जिसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता तथा जिस आनन्द के अनुभव में किसी प्रकार पराधीनता नहीं है, न उसमें कोई शरीरिक और मानसिक बाधाएँ ही हैं। यदि बाधक कर्मों का आवरण न हो, तो वह आनन्द ऐसा झलक उठता है कि किसी तरह मिट नहीं सकता। इसी से अमिट आनन्द शुद्ध परमात्मा में सदैव रहता है।
अन्तरात्मा जीव को आत्मा और आत्मा से भिन्न परद्रव्यों का ज्ञान हो जाता है अर्थात् मैं शरीरादि से भिन्न चैतन्यस्वरूपी आत्मा हूँ। ये शरीरादि मेरे नहीं हैं, न ही मैं इनका हूँ। तब उसे परद्रव्यों से भिन्न निज आत्मा की रुचि पैदा हो जाती है और संसार, शरीर व भोगों से अरुचि पैदा हो जाती है और वह हमेशा आत्मसन्मुख रहने का पुरुषार्थ किया करता है। जब तक इस जीव को अपने आत्मस्वरूप का बोध नहीं होता, तब तक ही वह संसार में सुख ढूँढ़ता हुआ बहिरात्मा बनकर भ्रमण करता रहता है। ___ एक राजधानी में एक फकीर भीख माँगता था। वह एक ही जगह बैठकर 30 वर्ष से भीख माँग रहा था। एक दिन वह मर गया। उसके चारों तरफ की जमीन गन्दी हो गई थी. इसलिये उसे जब लोग लेकर जाने लगे तो जहाँ वह बैठता था वहाँ चारों तरफ जमीन खोदी गयी। लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। हजारों आदमी वहाँ इकट्ठे हो गये। वहाँ जमीन के नीचे धन गड़ा हुआ था। बहुत खजाने भरे हुये थे। उस भिखारी ने सब जगह हाथ फैलाया, परन्तु अपने नीचे खोदकर नहीं देखा। लोग कहने लगे, भिखारी पागल था।
इसी प्रकार हम भी धन के पीछे दौड़ लगा रहे हैं और उससे सुख की इच्छा कर रहे हैं, लेकिन उसमें सुख था ही कब? जहाँ देखो वहाँ, जैसे रेस में घोडे दौडते हैं और हम सोचते हैं कि मेरा घोडा पीछे न रह जाये, वैसे धन के, मान के प्यासे 24 घण्टे दौड़ रहे हैं कि मैं सबसे आगे निकल जाऊँ, परन्तु अपने अन्दर झाँक कर देखो कि तीनलोक का नाथ अपना चैतन्य प्रभु अपने में ही विराजमान है। कहीं बाहर खोजने की जरूरत नहीं है। अनन्त काल बाहर में,
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