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इसकी सेवा में जुटे रहना, धनादिक व कुटुम्बादिक परपदार्थों की सेवा में जुटे रहना ही तो वह बन्धन है, जो स्वयं मैंने अपने सिर लिया हुआ है। सेवक बने रहना मेरी अपनी भूल है और मजा तो यह है कि इस भूल में भी मैं आनन्द मानता हूँ। परपदार्थों में उपयोग को भटकाते बहुत समय व्यतीत हो गया है, अब तो अपनी अन्तरात्मा को देखो। ये पर-भाव, पर दशायें सब ही स्वप्न हैं।
संसार की धन-सम्पत्ति किसी के साथ नहीं गई। यहाँ किसी का कुछ नहीं है। ‘परमात्म प्रकाश की टीका में पं. दौलतराम जी ने लिखा है
विषय-सुखानि द्वे दिवस के, पुन: दुःखानां परिपाटी।
भ्रान्त जीव या बाह्य त्वं, आत्मनः स्कन्धे कुठारम्।। विषयों के सुख दो दिन के हैं, फिर बाद में ये विषय दुःख की परिपाटी हैं, निगोदादि दुर्गतियों में ले जानेवाले हैं। ऐसा जानकर, हे भोले जीव! तू अपने कन्धे पर आप ही कुल्हाड़ी मत चला। ___ भैया! सुखी होने के लिये परपदार्थों से प्रेम नहीं करना चाहिये, नहीं तो उनके वियोग में फिर दुःख होता है। बम्बई में एक स्त्रीप्रेमी सेठ था। स्त्री की खूब सेवा करता था। जब स्त्री मंदिर जाये तब वह उसके ऊपर छतरी लगाकर चलता था। स्त्री ने सेठ को बहुत समझाया कि इतना प्रेम नहीं करना चाहिये, नहीं तो मेरे मरने पर तुम पागल हो जाओगे। ऐसा ही हुआ। जब वह मरी तो सेठ पागल हो गया।
यह इस जीव की सबसे बड़ी भूल है जो वह परपदार्थों को अपना मानता है और उनकी सेवा में जुटा रहता है। इस जीव ने धन-सम्पत्ति तो अनेक बार प्राप्त की, पर आत्मज्ञान आज तक प्राप्त नहीं किया। आत्मा में लीन रहने वाले दिगम्बर मुनिराज उत्तम अन्तरात्मा हैं। वे ही सदा सुखी रहते हैं। ___एक दिगम्बर मुनिराज एकान्त निर्जन वन में एक पेड़ के नीचे ध्यानस्थ बैठे थे। उनके मुखमण्डल से अपूर्व आभा निकल रही थी। चेहरे का तेज चारों ओर फैल रहा था। वहाँ से एक राजा शिकार खेलने जा रहा था। लेकिन राजा काफी चिंतित और परेशान था। उसके अन्तरंग की चिन्ता चेहरे पर स्पष्ट रूप से झलक रही थी। राज्य की चिन्ताओं से वह इतना अधिक घिर गया था कि उसने
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