________________
हो, वे अन्त में छूट जानेवाले हैं। अतः इन ‘परपदार्थों' का मोह छोड़ कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करो। मनुस्मृति में एक श्लोक है, जिसका अर्थ है-जो सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है, वह कर्मों से नहीं बंधता और जो सम्यग्दर्शन से रहित है, वह संसार में ही रुलता है। ___ क्या है वह सम्यग्दर्शन? नाम तो सुना है, मगर सम्यक्त्व है क्या चीज? आत्मा की जब निर्विकल्परूप अनुभूति बने, तब वास्तव में सम्यक्त्व का परिचय होता है। हम व आपको जरा ऊधम छोड़ना है, ढंग से बनना है, सब काम बन जायेगा। सम्यक्त्व होते ही बहुत काल से दुःखी होता चला आया यह आत्मा प्रसन्न हो जायेगा।
सम्यग्दर्शन का अचिन्त्य महात्म्य है। सम्यग्दर्शन के कारण ही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ, जल में कमलवत् संसार में (घर में) रहता हुआ भी इससे भिन्न रहता है। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी ने एक उदाहरण दिया है - पुत्र की मृत्यु के एक महीने पश्चात ही अपनी कन्या का विवाह करनेवाला कोई व्यक्ति बाहर में सबकछ रावरंग करता हुआ, मिठाई बनवाता हुआ, बाजे बजवाता हुआ भी अन्दर से रोने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता। वह हँस-हँसकर अतिथियों का सत्कार करता अवश्य है; पर अन्दर से नहीं, बाहर से। उसका अन्तःकरण तो यह सबकुछ करता हुआ भी अपने पुत्र के शोक से विहवल, केवल रो ही रहा है। यह सब खेल-तमाशा मानो उसका गला घोंट रहा हो, उसे ऐसा प्रतीत होता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी व्यापार आदि करता अवश्य है, भोग आदि भी भोगता अवश्य है, पर अन्दर से नहीं, केवल बाहर से । अन्दर से तो इन सब कार्यों को करता हुआ वह रोता मात्र है, मानो यह सबकुछ आडम्बर उसके आन्तरिक जीवन का गला घोंट रहा हो। लोक को वह सबकुछ करता हुआ अवश्य दिखता है, पर वास्तव में वह स्वयं कुछ भी नहीं कर पाता। इसी को अरुचिपूर्वक करना कहते हैं। 'घर में रहते हुये भी वैरागी' इसी का नाम है।
यहाँ आचार्य समझा रहे हैं-हे भाई ! तुझे कल्याण चाहिये, सुख-शान्ति चाहिये, तो परपदार्थों की ओर न देख । देख अपनी ओर, अपनी प्रभुता की ओर । तू तो स्वयं शांति का भण्डार है। इस शरीर को अपना मानकर निष्प्रयोजन
0 143_0