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लक्ष्मीकुमार जिनकुमार के घर गया और बोला-जिनकुमार! मेरे पिताजी ने तुम्हें अभी बुलाया है, इसलिए मेरे साथ चलो।
दोनों मित्र जा रहे थे। रास्ते में जिनकुमार ने कहा-मित्र! तू घबराया हुआ-सा क्यों दिख रहा है ?
लक्ष्मीकुमार ने कहा-भाई! क्या कहूँ? मेरा हीरा गुम हो गया है, इसलिए उन्होंने तुम्हें बुलाया है।
वहाँ पहुँचने पर धनजी सेठ ने पूछा-बोलो, हीरा तम्हें मिला है?
निर्दोष जिनकुमार के मन में तो सुबह से उसकी माता की बतलाई, चैतन्य हीरे की बात घूम रही थी, अतः उसी धुन में उसने कहा-हाँ, पिताजी! मेरी माता ने आज ही मुझे एक अद्भुत हीरा बतलाया है।
जवाहरात का हीरा तो उसने देखा नहीं था, उसके मन में तो चैतन्य हीरा घूम रहा था, लेकिन धनजी सेठ के मन में अगूंठी का हीरा घूम रहा था, चैतन्य हीरे की बात तो उन्होंने सनी ही नहीं थी, इसलिए उन्होंने तरन्त कहा -
भाई जिनकुमार! वह हीरा तो लक्ष्मीकुमार का है, उसे दे दो।
जिनकुमार ने कहा- बापू जी! वह तो हमारा हीरा है, आपके लक्ष्मीकुमार का हीरा तो मेरे पास नहीं है, परन्तु आप लक्ष्मीकुमार को मेरे घर भेज दीजिये तो मेरी माता उसे भी उसका हीरा बता देंगी।
जिनकुमार की बात सुनकर लक्ष्मीकुमार को लगा कि शायद जिन कुमार ने मेरा हीरा चुराया है और उसके द्वारा निश्चय ही मुझे प्राप्त होगा।
वह जिनकुमार के साथ गया और पूछा-"जिनकुमार! मेरा हीरा कहाँ है? मुझे बताओ।
जिनकुमार ने कहा- भाई! तुम्हारा हीरा हमारे पास नहीं है, तुम्हारे पास ही है और मैं तुम्हें वह बताऊँगा।
लक्ष्मीकुमार आश्चर्य से कहने लगा – अरे ! क्या मेरा हीरा मेरे ही पास है? जल्दी बताओ, कहाँ है? इस अंगूठी में तो वह है नहीं।
जिनकुमार ने कहा- भाई! वह हीरा अँगूठी में नहीं रहता, अँगूठी तो जड़ है, तुम्हारा चैतन्य हीरा तुम्हारे अन्दर है।
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