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________________ वास्तव में ज्ञाता–दृष्टा रहना ही आत्मा का स्वभाव है; पर इसके साथ जो मोह की पुट लग जाती है, वही समस्त दुःखों का मूल है । अन्य ज्ञानावरण आदि कर्मों के उदय से आत्मा का गुण रुक जाता है, परन्तु मोह का उदय उसे विपरीत परिणमा देता है । आत्मा का गुण रुक जाय, इसमें हानि नहीं, पर मिथ्यारूप हो जाने में महती हानि है। इसलिये मिथ्यात्व ही संसारभ्रमण का मूलकारण है । एक व्यक्ति को पश्चिम की ओर जाना था। कुछ दूर चलने पर उसे दिशा भ्रान्ति हो गई । वह पूर्व को पश्चिम समझकर चलता जा रहा है। उसके चलने में बाधा नहीं आई, पर ज्यों-ज्यों चलता जाता है, त्यों-त्यों अपने लक्ष्य से दूर होता जाता है। दूसरे व्यक्ति को दिशाभ्रान्ति तो नहीं हुई, पर पैर में लकवा मार गया, इससे चलते नहीं बनता। वह अचल होकर एक स्थान पर बैठा रहता है, पर अपने लक्ष्य का बोध होने से वह उससे दूर तो नहीं हुआ । कालान्तर में ठीक होने से शीघ्र ठिकाने पर पहुँच जायेगा । इस दुर्लभ मनुष्यभव में धर्म करने के लिये समय निकालना चाहिये । संसार के पापों और शरीरादि की चिन्ता में व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये । सच्चा सुख प्राप्त करने का एकमात्र उपाय अपनी आत्मा का सच्चा स्वरूप समझकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है । अपने स्वरूप को समझे बिना इस जीव ने अब तक कैसे-कैसे दुःख भोगे, इसका विचार करके इसी मनुष्यभव में आत्मा का स्वरूप समझकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिये । I "Strike when the iron is hot. " जब तक लोहा गर्म है, तब तक उसे पीट लो, गढ़ लो - इस कहावत के अनुसार इसी मनुष्यभव में मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लो, अन्यथा थोड़े ही समय में त्रस पर्याय का काल पूरा हो जायेगा और पुनः अनन्त काल तक संसार में ही भटकना पड़ेगा। एक बार एक बस्ती में एक साधु जी ठहरे हुए थे । वे प्रतिदिन भोजन के लिए गृहस्थों के यहाँ जाया करते थे। जिस रास्ते से वे गुजरते थे, उसी रास्ते में एक सेठ जी की दुकान पड़ती थी। सेठ जी उन साधु जी से रोज कहते कि साधु जी आज हमारे यहाँ भोजन कर लीजिए । साधु जी कहते कि किसी दिन 11 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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