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धर्म को धारण किया, उससे बढ़कर महान व्यक्ति इस संसार में दूसरा नहीं है। दुःखों की जड़ यह मोह ही है। यदि अपना कल्याण करना चाहते हो तो शरीर को अपने से पृथक् जानकर उसके प्रति मोह/ममता घटाना चाहिये और चेतन आत्मा के प्रति निरन्तर प्रीति बढ़ाना चहिये। आचार्य समझा रहे हैं- यदि मोह को क्षीण करना चाहते हो तो पर-पदार्थों से भिन्न आत्मतत्त्व को पहचान लो।
बहिरात्मपने को हेय जानकर छोड़ देना चाहिये और शरीर व आत्मा के भेद को समझकर अन्तरात्मा बनना चाहिये। जो समस्त कर्मों से भिन्न आत्मा के स्वरूप को पहचान लेता है, उसे कभी भी शरीर व कर्म में आत्मपने की भ्रांति नहीं होती। ऐसा अन्तरात्मा ही भेदज्ञानी महात्मा कहलाता है। वह अपनी आत्मा का अनुभव किया करता है। वास्तव में स्वानुभव ही वह मंत्र है जिस मंत्र के प्रभाव से राग-द्वेषादि सर्पो का विष उतर जाता है।
तत्त्वों को जानने व श्रद्धान करने से ही हमें अपनी आत्मा के सच्चे हित का ज्ञान हो सकता है और हम अपनी आत्मा को पवित्र कर सकते हैं। जैसे मैले कपड़े को उस समय तक शुद्ध नहीं किया जा सकता जब तक हमें यह ज्ञान न हो कि यह कपड़ा किस कारण से मैला है व इस मैल को धोने के लिये किस मसाले की जरूरत है। उसी तरह यह अशुद्ध आत्मा उस समय तक शुद्ध नहीं किया जा सकता जब तक हमें यह ज्ञान न हो कि यह आत्मा किस कारण से अशुद्ध है व इसे किस प्रकार से शुद्ध किया जा सकता है। इसी प्रयोजनभूत बात को समझने के लिए भगवान् ने ये जीवादि सात तत्त्व बताये हैं। जीव मुक्त व संसारी के भेद से दो प्रकार के होते हैं। जिन्होंने आठों कर्मों को नष्ट कर दिया है, उन्हें मुक्त जीव कहते हैं। जो जीव कर्मों सहित हैं, उन्हें संसारी जीव कहते हैं। अजीव तत्त्व -
जो ज्ञान-दर्शन चेतना से रहित हो, वह अजीव तत्त्व कहलाता है। जीवद्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) अजीव हैं, इनमें चेतना नहीं होती।
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