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आस्रव तत्त्व -
राग-द्वेष आदि भावों के कारण पुद्गल कर्मों का खिंचकर आत्मा की ओर आना आस्रव कहलाता है।
जैसे किसी नाव में छेद हो जाने पर पानी आने लगता है, वैसे ही कर्म आत्मा की ओर आते हैं। अथवा जिस प्रकार गरम लोहा पानी को खींच लेता है, उसी प्रकार जीव अपने योग और भावों के द्वारा कर्मों को अपनी ओर खींच लेता है। वही आस्रव है। बन्ध तत्त्व -
राग-द्वेष के निमित्त से आये हुये शुभ और अशुभ पुद्गल कर्मों का आत्मा के साथ दूध और पानी के समान मिलकर एकमेक हो जाना 'बन्ध' कहलाता है।
जैसे नाव में छेद द्वारा पानी आकर इकट्ठा हो जाता है, वैसे ही कर्म आकर आत्मा के साथ बंध जाते हैं। आस्रव व बन्ध के 57 कारण हैं :
मिथ्यातत्व, 12 अविरति, 25 कषाय और 15 योग । मुक्ति प्राप्त करने के लिये इन आस्रव व बन्ध के कारणों से बचना अनिवार्य है। संवर तत्त्व -
आस्रव का रुकना अर्थात् आते हुये कर्मों का रुकना 'संवर' कहलाता है। जैसे जिस छेद से नाव में पानी आ रहा है, उस छेद में डाट लगाकर पानी का आना बन्द कर दिया जाता है, वैसे ही कषायों के शमन से और इन्द्रिय व मन और पर नियंत्रण रखने से कर्मों का आना रुक जाता है, इसे संवर तत्त्व कहते
संवर के 57 कारण हैं -
3 गुप्ति, 5 समिति, 10 धर्म, 12 अनुप्रेक्षा, 22 परीषह जय और 5 चारित्र। ये 57 संवर के उपाय हैं। निर्जरा तत्त्व -
आत्मा के साथ बंधे हुये कर्मों का एकदेश (थोड़ा भाग) क्षय हो जाना 'निर्जरा' कहलाती है।
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