________________
ज्यों था त्यों ठहराया
पंडितों में जिस चीज पर विवाद न छिड़ जाए...| मुश्किल है ऐसी चीज पाना, जिस पर विवाद न छिड़ जाए! हर किसी चीज पर विवाद छिड़ जाता है। पंडित तो विवाद को आतुर है। विवाद भी लड़ने का एक ढंग है। अब तलवारें नहीं उठतीं, तो तर्क उठ जाते हैं! बात वही है--काटनी है गर्दन दूसरे की। तलवार से काटो कि तर्क से काटो-- हिंसा ही है--नए ढंग में निकली, सूक्ष्म रूप में निकली।
और मजा ऐसा कि जिस सागर में तुम उतरे ही नहीं--किनारे खड़े हो--उसकी गहराई का पता कैसे पा सकोगे? क्या उपाय होगा पता पाने का? रामकृष्ण यह कहानी बहुत बार दोहराए हैं कि दो नमक के पुतले भी भीड़भाड़ देख कर आ गए थे मेले में। उन्होंने यह विवाद सुना। उन्होंने कहा, रुको! हम अभी पता लगा कर आते हैं। यूं कैसे तय होगा! तट पर बैठे-बैठे सागर की गहराई कैसे मापोगे? हम जाते हैं; इबकी मारते हैं; अभी लौट कर आते हैं! दोनों नमक के पुतलों ने इबकी मार दी। प्रतीक्षा करते रहे--प्रतीक्षा करते रहे लोग। मेला चला महीनों--उजड़ा--लोग विदा भी हो गए। पुतले नहीं लौटे, सो नहीं लौटे। लौट भी नहीं सकते। नमक के पुतले थे, सागर में लीन हो गए। सागर से ही बने थे; नमक के थे, सो सागर से ही बने थे, सागर का ही अंग थे, सागर में ही विलीन हो गए। थाह तो मिली, मगर जो लेने चला था, वह खो गया। लौट कर कोई आया नहीं कहने। कुछ थे जो किनारे पर खड़े रहे, वे तो बचे, लेकिन उन्हें थाह न मिली। विवाद तो बहुत चला। शब्दों के जाल रचे गए, लेकिन गहराई का कोई पता कैसे चले! जिसको गहराई का पता चला, वह खुद ही खो गया। बहाना है खो जाने का। बहाना है उस परम प्यारे को पाने का। एक ओंकार सतनाम--वह जो एक है, नाम कुछ भी दे दो--ओंकार कहो, अल्लाह कहो, राम कहो, रहीम कहो, रहमान कहो--जो मौज हो, सो हो। लेकिन उस एक के साथ एक हो जाना है, तल्लीन हो जाना है। और इस तल्लीनता के सिवाय मरीज को आराम नहीं आ सकता। दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए आए जिस तरहा से बीमार को आराम आए आए जिस तरहा से बीमार को आराम आए दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
अब्र छाया है, हवा मस्त है, गुलशन खामोश काश! इस वक्त वह हाथों में लिए जाम आए काश! इस वक्त वह हाथों में लिए जाम आए दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
शान है ये भी तेरी बज्मे तरब की साकी कोई बदमस्त हो पीकर, कोई नाकाम आए
Page 125 of 255
http://www.oshoworld.com