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ज्यों था त्यों ठहराया
कोई बदमस्त हो पीकर, कोई नाकाम आए दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
वो भी दिन थे कि मेरी शाम थी सुबहे-उम्मीद अब तो ये हाल है, रो देता हूं जब शाम आए अब तो ये हाल है कि रो देता हं जब शाम आए दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
हाय वो वक्त, पता पूछ रहा हो कसिद
और यहां रस्क से लब पर न तेरा नाम आए दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए। आए जिस तरहा से बीमार को आराम आए। बहाने हैं। आए जिस तरह से बीमार को आराम आए! मत पूछो कि ध्यान क्यों करूं? यह भाषा बाजार की, दुकान की। यह चीज क्यों खरीदूं? यह भाषा प्रेम की नहीं। यह भाषा संन्यास की नहीं। ध्यान तो अपने आप में साध्य है। डूबो, तो जान पाओगे क्यों। मगर अगर पहले से पूछा क्यों, तो डूब ही न पाओगे। इस सारे अस्तित्व में क्यों का कोई उत्तर ही नहीं है। गुलाब के फूल सुंदर हैं--क्यों? और जुही से गंध झर रही है--क्यों? और तारों के साथ रातरानी महक उठी है--क्यों? और सुबह सूरज उगा है और पक्षियों ने गीत गाए हैं--क्यों? और सरिताएं भाग रही हैं हिमालय से सागर की तरफ--क्यों? अस्तित्व कोई पहेली नहीं है कि सुलझा लो। अस्तित्व एक रहस्य है, जिसे जीना है। और जिसने प्रश्न उठाए, वह दर्शन-शास्त्र की व्यर्थ की पहेलियों में खो जाता है। प्रश्न छोड़ो--निष्प्रश्न हो जाओ। निष्प्रश्न होना ही ध्यान है। न कोई विचार रहेगा, तो प्रश्न कहां रह जाएंगे! जहां विचार नहीं, जहां प्रश्न नहीं, जहां ऊहापोह नहीं, जहां वासना नहीं, जहां कहीं जाने की कोई आकांक्षा-अभीप्सा नहीं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं--वहीं स्वास्थ्य है, परम स्वास्थ्य है। ज्यूं का त्यूं ठहराया। ज्यूं था त्यूं ठहराया! बस, उस जगह ठहरे कि आनंद है, महोत्सव है।
दूसरा प्रश्नः भगवान, आपका तीर ठीक निशाने पर लगा। प्रत्युत्तर सुनते ही कबीर का पद याद आया: गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है घड़ि-घड़ि काट्टै खोट भीतर हाथ संवार दे बाहर मारै चोट! आपके प्रति धन्यवाद के भाव से भर गया है। अनंत अनंत धन्यवाद!
योगतीर्थ!
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