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ज्यों था त्यों ठहराया
दूर से आए थे साकी, सुन के मयखाने को हम। बस तरसते ही चले, अफसोस पैमाने को हम।। मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं। दिल में आता है, लगा दें आग मयखाने को हम।। हमको फंसना था कफस में, क्या गिला सैयाद का। बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम।। बाग में लगता नहीं, सहरा में घबराता है दिल। अब कहां ले जाके बैठे, ऐसे दीवाने को हम।। क्या हई तकसीर हमसे, तू बता दे ऐ नजीर। ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।। दूर से आए थे साकी, सुन के मयखाने को हम। बस तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम।। जो सोच-विचार कर आया है, वह तो जैसा आया वैसा ही लौट जाएगा। खाली आया, खाली लौट जाएगा। उसका पैमाना न भरेगा। साकी से उसका मिलन न हो सकेगा। सब है, लेकिन वह चूक जाएगा। मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं। दिल में आता है, लगा दें आग मयखाने को हम।। सब होगा--साकी से मिलन न हो पाएगा। साकी सूफियों का प्रतीक है परमात्मा के लिए। और तब जरूर क्रोध आएगा कि हम इतने दूर से आए; बहुत सुन कर आए, बहुत आशा से आए, बहुत आकांक्षा से आए और खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। क्यों न आग लगा दें मयखाने को हम! जो सोच कर आया, वह आता ही नहीं; आ ही नहीं पाता। सब होता: मय भी, मयखाना भी, साकी नहीं। सब उसे दिखाई पड़ता है। यहां जो सोच-विचार कर आ गए हैं, उन्हें सब दिखाई पड़ेगा। कौन पुरुष किस स्त्री का हाथ पकड़कर बैठा है, उन्हें दिखाई पड़ेगा। कौन किसको आलिंगन में आबद्ध किए है--उनको दिखाई पड़ेगा। मैं भर उन्हें दिखाई नहीं पडूंगा। और जो बिन सोचे आए हैं, उन्हें सिर्फ मैं दिखाई पडूंगा--और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। आलिंगनबद्ध कोई जोड़ा भी खड़ा होगा, तो भी उन्हें मैं ही दिखाई पडूंगा; और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा। उन्हें वृक्षों की हरियाली में, और फूलों के रंगों में, और संन्यासियों में मैं ही दिखाई पडूंगा; और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा। तू ठीक ढंग से आई है। तू कहती है: यहां भला कब सोचा आना मेरा आपका दर्शन पाना!
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