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ज्यों था त्यों ठहराया
मत ऐसा सोच कि यह अहंकार तेरे प्रेम में बाधा बन रहा है। अहंकार क्या बेचारा बाधा बनेगा। तू नहीं है असहाय-असमर्थ; अहंकार है असहाय और असमर्थ। लेकिन हमारा उससे तादात्म्य इतना हो गया है कि हम सोचते हैं--हम असहाय, हम असमर्थ! तू तो स्वयं परमात्मा है। जिस दिन ध्यान परिपूर्ण होगा, उस दिन यह उदघोष निकलेगा-- अहं ब्रह्मास्मि। अनलहक। तत्वमसि!
दूसरा प्रश्न: भगवान प्रीतम द्वार खड़ी हूं मौन यहां भला कब सोचा आना मेरा आपका दर्शन पाना! खींच मुझे इतनी दूरी से लाया बरबस कौन? मौन खड़ी खटखटाऊं द्वार-- अरे! हाथ खाली ही आई! देने को उपहार न लाई! अरी! करेगी किससे प्रियतम की पूजा-सत्कार? क्षमा करना-- यहीं कहीं बैलूंगी छिपकर आएंगे देखूगी पल-भर बस, लौटूंगी उस पल का हृदय-पट पर चित्र उतार! वीणा भारती! मौन में ही द्वार खुलता है। मौन से ही द्वार खुलता है। मौन आया--कि द्वार खुला। खटखटाना भी नहीं पड़ता। तू कहती है--प्रीतम द्वार खड़ी हूं मौन! यही तो कुंजी है--प्यारे के द्वार पर चुपचाप खड़े हो जाना। पुकार भी नहीं देने की जरूरत है। अजान भी करने की जरूरत नहीं। कबीर ने एक मस्जिद से गुजरते समय देखा कि मुल्ला चढ़कर मीनार पर, अजान दे रहा है। तो कबीर ने चिल्ला कर कहा, उतर नीचे पागल! क्या बहरा हुआ खुदाय? क्या तेरा खुदा बहरा हो गया--जो इतनी ऊंची मीनार पर चढ़ कर, इतना शोरगुल मचा रहा है? मौन हो। चुप हो। चुप्पी की भाषा ही बस परमात्मा जानता है। मौन ही एकमात्र सेतु है। बोले कि दूर हुए। पुकारा कि भिन्न हुए। चुप हए कि अभिन्न। चुप हए कि एक। तू कहती है, प्रीतम द्वार खड़ी हूं मौन! कुंजी तेरे हाथ लग गई। यहां भला कब सोचा आना!...सोच-विचार कर यहां कोई आता? और सोच-विचार कर जो आता है, वह खाली हाथ ही चला जाता है। सोच-विचार कर भी कभी कोई आता है? कभी कोई आया है? आए भी तो आ नहीं पाता।
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