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2.5 सेवनाधिकार (सेवणाहिगारो)- इसका अर्थ है यह एक ऐसा पाप है जो हिंसा, चोरी आदि अन्यान्य पापों का प्रेरक है। 2.6 संकल्पी (संकप्पो) - यह नाम भी इसकी उत्पत्ति के कारणों से संबंधित है। इसका अर्थ है मानसिक संकल्प विकल्प से उत्पन्न होने वाला। 2.7 बाधनापदानाम् (बाहणा पयाणं) - यह नाम अब्रह्मचर्य से होने वाली हानि को दर्शाता है। प्रस्तुत नाम के दो अर्थ हैं -
(1) संयम के स्थानों अर्थात् संयम पद पर स्थित लोगों की बाधा (पीड़ा) का कारण।
(2) बाधना प्रजानाम् - अर्थात् सर्व साधारण को पीड़ित दुखी करने वाला। यह संयम में विघ्न उत्पन्न कर स्व-पर उभय पक्षों के लिए पीड़ा का कारण बनता है। 2.8 दर्प - अब्रह्मचर्य की उत्पत्ति के कारणों की समीक्षा करते हुए शास्त्रकार ने स्पष्ट किया है कि इसका जन्म दर्प से होता है। दर्प का अर्थ है शरीर व इंद्रियों का अधिक-अधिक बलवान होना। शरीर व इंद्रियों की अधिक पुष्टि से काम वासना को उत्पन्न होने का अवसर मिलता है। 2.9 मोह-मूढ़ता (मोहो)- यह नाम अब्रह्मचर्य के दुष्परिणाम को दर्शाता है। इसका अर्थ है काम के वशीभूत हुआ प्राणी मूढ़ बन जाता है। इसके कारण हित-अहित, कर्तव्य-अकर्तव्य या श्रेयस-अश्रेयस का विवेक नष्ट हो जाता है। इसका दूसरा अर्थ मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला है। 2.10 मन: संक्षोभ (माणसंखोभो-संखेवो)- मानसिक क्षोभ से उत्पन्न होने वाला या मन में क्षोभ-उद्वेग उत्पन्न करने वाला। इससे मानसिक विकृतियां बढ़कर मन की चंचलता बढ़ जाती है। 2.11 अनिग्रह (अणिग्गहो) - यह नाम भी इसके कारण एवं परिणाम का द्योतक है। अर्थात् मनोनिग्रह न करने से उत्पन्न होने वाला तथा विषयों में प्रवृत्त होते हुए मन और इंद्रियों का निग्रह न करना। 2.12 विग्रह (वुग्गहो) - इसका अर्थ है - लड़ाई, झगड़ा, क्लेश उत्पन्न करने वाला। प्राचीन काल से ही कामवासना के कारण अनेक युद्ध, अपहरण आदि हुए हैं। इसका दूसरा अर्थ विपरीत अभिनिवेश मिथ्या आग्रह से उत्पन्न होने वाला भी है। 2.13 विघात (विधाओं) - अर्थात् गुणों का विघातक। नीतिकारों ने भी कहा है कि मनुष्य में ज्ञान, विनय, आचार आदि गुण तभी तक विद्यमान रहते हैं जब तक वह अब्रह्मचर्य में नहीं फंसता।
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