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(अ) मैथुन संज्ञा का अर्थ - ठाणं एवं जीवाजीवाभिगम के व्याख्याकारों ने वेदोदयजनित मैथुनाभिलाषा को मैथुन संज्ञा कहा है। आवश्यक सूत्र की हारिभद्रिया वृत्ति के अनुसार वेद मोहनीय के उदय से मैथुन की अभिलाषा रूप जो जीव का परिणाम होता है उसका नाम मैथुन संज्ञा है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने इसे लिबिडो (Libido-Desireof Sex) नाम दिया है।
(ब) मैथुन संज्ञा की उत्पत्ति का कारण - ठाणं सूत्र में मैथुन संज्ञा की उत्पत्ति के चार कारणों का उल्लेख मिलता हैं।"
(1) अत्यधिक मांस-शोणित का उपचय हो जाने से, (2) मोहनीय कर्म के उदय से मोहाणुओं की सक्रियता से, (3) मैथुन की बात सुनने से उत्पन्न मति से, (4) मैथुन का सतत् चिंतन करते रहने से।
आवश्यक सूत्र में मैथुन संज्ञा की उत्पत्ति के कारण कुछ भेद के साथ इस प्रकार मिलते हैं
(1) शरीर पुष्ट बनाने से। (2) वेद मोहनीय कर्मों के उदय से। (3) स्त्री आदि को देखने से।
(4) काम भोगों का चिंतन करने से। 2.2.3 मैथुन सेवन का साधन
ठाणं सूत्र में मैथुन सेवन के साधन (शरीर) के अंगों को भी विभक्त किया गया है। इसके अनुसार आत्मा शरीर के एक भाग से भी और समूचे शरीर से भी मैथुन सेवन करती है। 2.3 चरंत (चरंत) - इसका अर्थ है विश्वव्यापी, अर्थात् समग्र संसार में व्याप्त। अब्रह्मचर्य का यह नाम इसके व्यापक स्वरूप को प्रदर्शित करता है। इस अब्रह्मचर्य की कामना से देव, मानव, असुर व पशु कोई भी मुक्त नहीं होता।
यहां तक कि जीवों में सबसे हीन संज्ञा वाले एकेन्द्रिय जीव भी इससे मुक्त नहीं हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र के व्याख्याकार ने एक सुंदर श्लोक से इसको स्पष्ट किया है -
हरि हर हिरण्यगर्भ प्रमुखे भुवने न कोऽप्यसौ।
कुसमविशिखस्य विशिखान् अस्खलयद् यो जिनादन्य।।" 2.4 संसर्गी (संसगी संसग्गि)- यह नाम इसकी उत्पत्ति के कारणों से संबंधित है। संसर्गी का अर्थ है स्त्री और पुरुष (आदि) के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला।
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