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2.14 विभंग (विभंगो)- संयम आदि सद्गुणों को भंग करने वाला। 2.15 विभ्रम (विब्भमो) - भ्रांति पैदा करने वाला अथवा विभ्रम-काम-विकारों का आश्रय। 2.16 अधर्म (अहम्मो)- पाप का कारण। 2.17 अशीलता (असीलया)- शील का घातक, सदाचार का विरोधी। 2.18 ग्राम धर्म तप्ति (गामधम्मतित्ति) - इन्द्रिय विषयों, शब्दादि काम भोगों की गवेषणा का कारण। 2.19 रतिक्रीड़ा (रई)- सम्भोग करना। 2.20 रागचिंता - नर-नारी के शृंगार, हाव-भाव, विलास आदि के चिंतन से उत्पन्न होने वाला। 2.21 कामभोगमार (कामभोगमारो)- काम भोगों में होने वाली, अत्यंत आसक्ति से होने वाली मृत्यु का कारण। अथवा कामभोगों का साथी मार अर्थात् कामदेव। 2.22 वैर (वेरं)- विरोध का हेतु। 2.23 रहस्यम (रहस्स)- एकांत में किया जाने वाला। 2.24 गुह्य (गुज्झं) - छिपाने योग्य कर्म। 2.25 बहुमान (बहुमाणो)- बहुत से लोगों द्वारा मान्य या इष्ट अथवा संसारी जीवों द्वारा बहुत अधिक मान्यता प्राप्त। 2.26 ब्रह्मचर्यविघ्न (बंभचेरविग्धो) - ब्रह्मचर्य पालन में विघ्नकारी। 2.27 व्यापत्ति (वाबत्ती) - आत्मा के स्वाभाविक गुणों का विनाशक। 2.28 विराधना (विराहणा) - चारित्र की विराधना, नाश करने वाला। इसके कारण सम्यक् चारित्र उत्पन्न ही नहीं होता है। उत्पन्न चारित्र भी इसके कारण नष्ट हो जाता है। 2.29 प्रसंग (पसंगो)- आसक्ति का कारण। 2.30 कामगुण (कामगुणो)- इसका सामान्य अर्थ है इंद्रियों के विषय तथा काम को उद्दीप्त करने वाले साधन शब्द आदि। स्थानांग वृत्ति में इसके दो अर्थ हैं -
(1) मैथुन इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल (2) इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल।"
समवायांग सूत्र के वृत्तिकार ने 'काम' का अर्थ - अभिलाषा और गुण का अर्थ - शब्द आदि पुद्गल किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप में कामवासना को उत्तेजित करने वाले शब्द आदि को 'काम गुण' माना गया है।
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