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(5) बल व उन्मत्तता उत्पादक पदार्थों का सेवन नहीं करना।" (6) तत्त्वार्थ सूत्र(1) स्त्रियों में राग पैदा करने वाली कथा सुनने का त्याग। (2) स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग। (3) पूर्व भोगों के स्मरण का त्याग। (4) गरिष्ठ और इष्ट रस का त्याग तथा (5) अपने शरीर के संस्कार का त्याग। 102 (7) योगशास्त्र -
(1) स्त्री, नपुंसक और पशु वाले स्थान का, वे जिस आसन में बैठे हों उस आसन का और बीच में दीवार के व्यवधान वाले स्थान का त्याग करना।
(2) राग भाव से स्त्री कथा का त्याग करना। (3) गृहस्थावस्था में भोगे हए काम भोगों को स्मरण न करना। (4) स्त्री के रमणीय अंगोपागों का निरीक्षण न करना और शरीर का संस्कार न करना।
(5) कामोत्तेजक एवं परिमाण से अधिक भोजन का त्याग करना। (योग शास्त्र 1/30,31) 32.2 ब्रह्मचर्य अणुव्रत का स्वरूप
अणुव्रत - जो साधक महाव्रत स्वीकार कर मुनि नहीं बन सकते उनके लिए गृहस्थ जीवन में ही संयम पूर्वक रहने का विधान अणुव्रत के रूप में है। उपासक दशांग सूत्र में ब्रह्मचर्य अणुव्रत के लिए "स्वदार संतोष व्रत' शब्द का प्रयोग है। इसके अन्तर्गत स्वयं की विवाहित पत्नी/पति के अतिरिक्त अन्यत्र मैथुन सेवन का प्रत्याख्यान किया जाता है। 103
आवश्यक सूत्र में इसी को "स्थूल मैथुन विरमण व्रत'' के नाम से बताया गया है। 10
ब्रह्मचर्य अणुव्रत अन्य अणुव्रतों की अपेक्षा अनेक प्रकार की विशिष्टता लिए हुए है। अन्य व्रतों की प्रतिज्ञा में करण और योग का उल्लेख किया गया है किन्तु इस व्रत की प्रतिज्ञा में उनका उल्लेख नहीं है। 1 टीकाकार ने इसका कारण यह माना है कि गृहस्थ जीवन में सन्तान आदि का विवाह कराना आवश्यक होता है। अत: इसके दो करण और तीन योग न कह कर श्रावक को अपनी परिस्थिति एवं सामर्थ्य पर छोड़ दिया जाता है। फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि गृहस्थ साधक एक करण और एक योग से अर्थात् अपनी काया से स्व पत्नी के अतिरिक्त शेष मैथुन का त्याग करता है।106
उपासकदसाओ के बाद अनेक श्रावकाचारों में ब्रह्माणुव्रत पर विस्तार से विचार किया गया है।
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