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3.2 दो भेद - (1) महाव्रत (2) अणुव्रत
साधना के क्षेत्र में सभी साधकों की शक्ति में तरतमता होती है। इसलिए साधना का क्रम भी उनकी क्षमता के अनुसार निर्धारित किया जाता है। जैन परम्परा में मोटे तौर पर साधकों के लिए दो विभाग किए गए हैं - (1) महाव्रत (2) अणुव्रत
(1) ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप - यह मुनियों के लिए विहित है। इसमें जीवन भर के लिए कृत, कारित, अनुमोदित व मन - वचन - काया से मैथुन सेवन का प्रत्याख्यान किया जाता है।
दसवैकालिक सूत्र में इसका स्वरूप इस प्रकार है- " भंते! इसके पश्चात् चौथे महाव्रत में मैथुन की विरति होती है।
भंते! मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव संबंधी, मनुष्य संबंधी अथवा तिर्यञ्च संबंधी मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूँगा, दूसरों से मैथुन सेवन नहीं कराऊँगा
और मैथुन सेवन करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा, जीवनभर के लिए, तीन करण तीन योग से - मन से वचन से काया से - न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा।
भंते! मैं अतीत के मैथुन सेवन से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।
भंते! मैं चौथे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व मैथुन की विरति होती है। "
सर्वार्थसिद्धि में हिंसादि पांचों व्रतों के दो भेद किए गए हैं - "देशसर्वतोऽणुमहती' - एक देश निवृत्त होना अणुव्रत है और सर्व प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है।
पातञ्जल योग सूत्र में महाव्रत की परिभाषा इस प्रकार है- एते जाति देशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्।
(2) ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावनाएं - साधक में महाव्रतों की चेतना जागृत करने के लिए अर्थात महाव्रतों को स्थिर एवं सुरक्षित करने के लिए भावनाओं का प्रयोग किया जाता है। भावना के महत्व को प्रकाशित करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है
ण करेदि भावणाभाविदो खु पीडं वदाण सव्वेसिं।
साधू पासुत्तो समुद्धो व किमिदाणि वेदंतो।। 1206।। भावनाओं से भावित साधु गहरी नींद में सोता हुआ भी अथवा मूर्छित अवस्था में भी व्रतों में दोष नहीं लगाता। तब जागते हुए की तो बात ही क्या है।
प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएं हैं। जैन आगमों में भावनाओं के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य की भावना का विविध स्थलों पर कुछ समानता और कुछ वैविध्य के साथ उल्लेख
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