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9. प्राण संदेह
10. शुक्र विमोचन 2.11 ब्रह्मचर्य : एक निरपवाद साधना
जैन परम्परा में अन्य व्रतों में तो अपवाद भी स्वीकार किए गए हैं, किन्तु ब्रह्मचर्य व्रत को निरपवाद माना गया है। इसे स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार कहते हैं
न वि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहि।
मोत्तुं मेहुणभावं, न तं विना रागदोसेहिं।। अर्थात् जिनवरेन्द्र तीर्थंकरों ने मैथुन के सिवाय न तो किसी बात को एकान्त रूप से अनुमत किया है और न एकान्तत: किसी चीज का निषेध किया है। सभी विधि-निषेधों के साथ आवश्यक अपवाद जुड़े हैं। कारण यह है कि मैथुन तीव्र राग-द्वेष अथवा राग रूप दोष के बिना नहीं होता।
ब्रह्मचर्य महाव्रत के संदर्भ में जिन अपवादों का उल्लेख मूल आगमों में पाया जाता है उनका संबंध मात्र ब्रह्मचर्य की रक्षा के नियमों से हैं। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं - सामान्य रूप से श्रमण के लिए स्त्री-स्पर्श वर्जित है, लेकिन अपवाद रूप में वह नदी में डूबती हुई अथवा क्षिप्त चित्त भिक्षुणी को पकड़ सकता है। इसी प्रकार रात्रि में सर्पदंश की स्थिति हो और अन्य कोई उपचार का मार्ग न हो तो श्रमण स्त्री से और साध्वी पुरुष से स्पर्श संबंधी चिकित्सा करा सकते हैं।
साथ ही साधु या साध्वी के पैर में कांटा लग जाए और अन्य किसी भी तरह निकालने की स्थिति न हो, तो वे परस्पर एक दूसरे से निकलवा सकते हैं। 3.0 ब्रह्मचर्य : भेद-प्रभेद 3.1 दो भेद - (1) निश्चय और (2) व्यवहार।
(1) निश्चय - भगवती आराधना एवं अनगार धर्मामृत में ब्रह्म का अर्थ जीव अथवा निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा है। उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। पद्मनंदी पंच विंशतिका में शरीर से मोह के हटने को वास्तविक ब्रह्मचर्य माना गया है।
(2) व्यवहार - सर्वार्थ सिद्धि के अनुसार अनुभूत स्त्री का स्मरण, स्त्री कथा आदि मैथुनांगों का त्याग करने से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है। या स्वतंत्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ब्रह्मचर्य है। "
भगवती आराधना के अनुसार नव प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करना व्यवहारिक ब्रह्मचर्य है। पद्मनंदी पंच विंशतिका के अनुसार वृद्धा आदि स्त्रियों को क्रम से माता, बहन और पुत्री के समान समझना ब्रह्मचर्य है। 93