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"ब्रह्मचर्य समाधि स्थान'' के नाम से स्वतंत्र अध्याय है जिसमें ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए दस स्थानों का विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त अनेक आगमों में 'ब्रह्मचर्य की पांच भावनाएं' के रूप में सुरक्षा उपाय प्राप्त होते हैं। व्यवस्थित एवं विस्तृत इन सुरक्षा साधनों के अलावा जैन आगमों में अनेक ऐसे सूत्र विकीर्ण रूप से भी मिलते हैं जो ब्रह्मचर्य साधक के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करते हैं। इन समस्त सुरक्षा साधनों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रथम सुरक्षा चक्र - संसर्ग संयम द्वितीय सुरक्षा चक्र - पंचेन्द्रिय संयम और
तृतीय सुरक्षा चक्र - मन संयम। प्रथम सुरक्षा चक्र वासना को उद्दीप्त करने वाले बाह्य वातावरण से रक्षा करता है। इसके अन्तर्गत वेश्याओं, कामुक स्त्री-पुरुषों तथा कामुक वातावरण से ब्रह्मचारी की रक्षा होती है। आगमों में इसे विविक्तशयनासन के रूप में लिया गया है।
_दूसरा सुरक्षा चक्र पंचेन्द्रिय संयम है। इन्द्रियां बाह्य वातावरण एवं आत्मा की सेतु होती हैं। इन्द्रिय संयम के अभाव में ब्रह्मचारी विषयासक्त होकर विचलित हो सकता है। आगमों में वर्णित ब्रह्मचर्य गुप्ति स्थानों एवं समाधि स्थानों में इस सुरक्षा चक्र का इतना महत्त्व है कि वहाँ पृथक्-पृथक् इन्द्रिय विषयासक्ति के वर्जन का निर्देश है तो समुच्चय रूप में पांचों विषयों को एक साथ भी उल्लेख कर इनकी आसक्ति से बचने का निर्देश है। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए एक-एक इन्द्रिय विषयों के संयम का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। (i) श्रोतेन्द्रिय संयम - श्रोतेन्द्रिय का विषय है- शब्द। आचार्य महाप्रज्ञ शब्द को अनन्त शक्ति का पुंज मानते हैं। एक छोटा सा शब्द हमारी चेतना में भारी विप्लव उत्पन्न कर सकता है। अश्लील गीत, वार्तालाप, स्त्रियों का कामोत्तेजक वर्णन आदि सुनने से व्यक्ति कामान्ध हो सकता है। जैन कथा साहित्य में स्त्रियों के चित्रण को सुनकर अनेक युद्ध होने का वर्णन आता है- द्रौपदी, सीता, मल्ली कुमारी आदि के रूप का वर्णन युद्ध का निमित्त बना था। वर्तमान में भी श्रव्य संसाधनों का अश्लील प्रयोग अनेक समस्याएं उत्पन्न कर रहा है। (ii) चक्षु संयम - व्यक्ति के मन में वासना का प्रवेश द्वार है- दृष्टि। इसलिए जैन आगमों में स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों को दृष्टि गढ़ाकर, राग-भाव से देखने तथा विशेष रूप से आंख से आंख मिला कर देखने का निषेध है । न केवल स्त्री बल्कि स्त्री के चित्रों को तथा स्वयं की परछाई को भी देखना वर्जित है। इस निषेध का कारण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि इससे साधक बहिरात्मा बन जाता है। मुनि रथनेमि आदि का उदाहरण भी इसकी पुष्टि में दिया गया है। आवश्यकतावश स्त्रियों को देखना ही पड़े तो उपेक्षाभाव से व क्षणिक देखकर फिर दृष्टि हटा लेने का समाधान भी दिया गया है।
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