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(3) विचिकित्सा - इसका अर्थ है चित्त का विप्लव। जब अभिलाषा तीव्र हो जाती है तब मन समूचे धर्माचरण के प्रति विक्षुब्ध हो जाता है। इस अवस्था में मानसिक संकल्पों-विकल्पों के ज्वार उठने लग जाते हैं।
(4) भेद - जब विचिकित्सा का भाव पुष्ट हो जाता है तब चारित्र का भेद-विनाश हो जाता है।
(5) उन्माद - कोई मनुष्य ब्रह्मचारी तभी रह सकता है जब वह ब्रह्मचर्य में अब्रह्मचर्य की अपेक्षा अधिक आनंद माने। यदि कोई इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण तो नहीं रख पाता लेकिन हठ पूर्वक या संकोचवश ब्रह्मचर्य का पालन करता है तो वह मानसिक उन्माद ग्रस्त हो सकता है।
(6) दीर्घकालीन रोग और आतंक - ब्रह्मचर्य का पालन चेतना के ऊर्ध्वारोहण से सहज होता है। यदि चेतना कामवासना से ऊपर न उठे तो बाहरी दबाव या हठपूर्वक अपनाया गया ब्रह्मचर्य मात्र दमन होता है। ऐसी स्थिति में साधक विक्षिप्त हो जाता है। फलस्वरूप वह अनेक दीर्घकालीन रोगों से ग्रस्त हो जाता है तथा उसे आकस्मिक उत्पन्न होने वाले रोग (आतंक) का भी खतरा रहता है।
(7) धर्म-भ्रंश - इन पूर्व अवस्थाओं में जो अपना बचाव नहीं कर सकता वह अन्ततः धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अर्थात् वह ब्रह्मचर्य भंग कर बैठता है और साधना का मार्ग छोड़ देता है। 4.0. निष्कर्ष
ब्रह्मचर्य साधना महासंग्राम की तरह होती है। संग्राम की रणनीति के अन्तर्गत शत्र पर आक्रमण व रसद की आपूर्ति को रोकना एक आवश्यक अंग होता है। अध्यात्म संग्राम में मोहनीय कर्म पर आक्रमण एवं उसको बढाने वाले निमित्तों से बचाव मुख्य रणनीति का भाग होता है। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य संग्राम में भी अन्दर के वासना-विकारों पर अध्यात्म साधनों द्वारा आक्रमण एवं वासना-विकारों को बढाने वाले निमित्तों से स्वयं की सुरक्षा इस रणनीति का मुख्य हिस्सा है। अतः इस संग्राम में साधक संभावित खतरों से सावधान रहता है। जैन आगमों के रचनाकारों एवं व्याख्याकारों ने यह अनुभव किया कि ब्रह्मचर्य साधना में निमित्तों से स्वयं की सुरक्षा का बहुत बड़ा महत्त्व है। साधना के अनुकूल निमित्त जहां विकास में सहयोगी बनते हैं, वहीं प्रतिकूल निमित्त साधना का विघात करने वाले प्रबल हेतु भी होते हैं। साधक की ब्रह्मचर्य साधना निर्बाध रूप से बढती रहे इसलिए जैन आगमों में ब्रह्मचर्य सुरक्षा के उपायों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
ठाणं, समवायांग एवं आवश्यक आदि सूत्रों में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का वर्णन है वहीं प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य एवं अब्रह्मचर्य पर विस्तृत मार्गदर्शन है तथा उत्तराध्ययन सूत्र में
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