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स्वाध्याय, सेवा आदि के लिए एक दूसरे के उपाश्रय में जाने का उल्लेख ठाणं एवं व्यवहार सूत्र में मिलता है। ‘परम्परा की जोड़' में श्रीमद् जयाचार्य ने इस पर विशद विवेचन किया है। उनके अनुसार आवश्यक कार्य के लिए भी साधु-साध्वियों को एक दूसरे के स्थान में अकाल का वर्जन कर जाना चाहिए।
• कुछ पात्र विशेष भी विकारोत्पादक हो सकते हैं। जैसे बृहत्कल्प सूत्र में एक 'मात्रक' नामक पात्र विशेष का उल्लेख मिलता है जो भीतर से लीपा हआ - चिकना किया हुआ, छोटे घड़े के आकार का होता था। जिसका उपयोग उच्चार-प्रस्रवण एवं कफ आदि के लिए लिया जाता था। ऐसे पात्र साध्वियों के लिए विकारोत्पादक नहीं होते। साधुओं में इससे विकार की संभावना रहती है इसलिए इसका उपयोग साधुओं के लिए निषिद्ध था। • ऐसे प्रवास स्थान या उपाश्रय जो कामक्रीड़ा, नारी सौन्दर्य आदि विकारोत्पादक चित्रों से युक्त हो, वहां साधु-साध्वियों को रहना नहीं कल्पता हैं। • साध्वियों के लिए किसी गृहस्थ के नैश्राय में रहना ही कल्पता है। 25 · विचार भूमि एवं विहार में रात्रि में अकेले गमनागमन से ब्रह्मचर्य को खतरा एवं स्त्री
परीषह की संभावना बन सकती है। इसलिए बृहत्कल्प सूत्र में इसका भी निषेध है। 26 3.0. सुरक्षा उपायों की उपेक्षा का परिणाम
ब्रह्मचर्य व्रत का स्थान सभी व्रत में सर्वोपरि है। यह बहत ही संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए इसकी सुरक्षा के लिए इतने कड़े प्रबन्ध किए गए। ब्रह्मचारी के लिए यह अति आवश्यक है कि इसकी सुरक्षा के उपाय का वह सजगता से पालन करे। ये सुरक्षा-उपाय ब्रह्मचर्य की सिद्धि के उत्कृष्ट सहायक भी हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार इन उपायों की उपेक्षा करने से ब्रह्मचर्य के नष्ट होने की संभावनाएं इस प्रकार रहती हैं। 227
(1) शंका - 'ब्रह्मचर्य का पालन करने में कोई लाभ है या नहीं', 'तीर्थंकरों ने अब्रह्मचर्य का निषेध किया है या नहीं?' 'अब्रह्मचर्य के सेवन में जो दोष बतलाए गए हैं, वे यथार्थ है या नहीं?' इस प्रकार की अनेक प्रकार की शंका ब्रह्मचारी के मन में उत्पन्न हो सकती है। ये शंकाएं ब्रह्मचर्य के प्रति साधक की श्रद्धा को कमजोर करती हैं। इससे मानसिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(2) कांक्षा - शंका के प्रगाढ होने के पश्चात् साधक के मन में अब्रह्मचर्य सेवन की अभिलाषा उत्पन्न होने लगती है। इससे साधक साधना के मार्ग से एक कदम और पीछे हो जाता है।
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