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डालता है। स्त्रियों के द्वारा मांगने पर वह क्या नहीं देता या क्या नहीं करता? (सब कुछ कर डालता है।)
ददाति शौचपानीयं, पादौ प्रक्षालयत्यपि।
श्लेष्माणमपि गृह्णाति, स्त्रीणां वशंगतो नरः।। वह प्रिया को शौच का पानी ला देता है। उसके पैर पखारता है, उसके श्लेष्म को भी हाथ में ले लेता है। (उसे हाथों में थुकाता है) 53
सूत्रकार कहते हैं कि दास अपने स्वामी के आदेश का पालन उद्विग्नता से भय के कारण करता है किन्तु स्त्री का वशवर्ती मनुष्य स्त्री के आदेशों को अनुग्रह मानता है और उसके निष्पादन में प्रसन्नता का अनुभव करता है। वृत्तिकार कहते हैं
यदेव रोचते मह्यं, तदेव कुरुते प्रिया।
इति वेत्ति न जानाति, तत्प्रियं यत्कारोत्यसौ।। मेरी स्त्री मुझे जो रुचिकर है वही करती है, ऐसा वह मानता है किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह स्वयं वही करता है जो अपनी प्रिया को रुचिकर हो।"
सूत्रकृतांग वृत्ति में स्त्रीवशवर्ती मनुष्य को पशु से भी उपमित किया गया है। पशु कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से शन्य होता है। उसमें हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने का विवेक नहीं होता। वैसे ही स्त्रीवशवर्ती मनुष्य भी विवेक शन्य होता है। जैसे पशु आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की संज्ञा में ही रत रहता है, वैसे ही वह पुरुष भी कामभोग में ही रत रहता है इसलिए वह पशुतुल्य होता है।
(5) व्रतों को खतरा - दसवैकालिक सूत्र एवं उत्तराध्ययन सूत्र दोनों सूत्रों में उदाहरण के साथ कहा गया है कि जैसे चूहों और मुर्गों के बच्चे को बिल्ली से भय होता है वैसे ही ब्रह्मचारी को स्त्रियों से भय है। ब्रह्मचर्य की साधना सर्वाधिक संवेदनशील है। स्त्री संस्तव एवं संवास से इन्द्रियों पर नियंत्रण करना दुष्कर होता है। इससे ब्रह्मचर्य को खतरा उत्पन्न हो जाता है। इससे सभी व्रत खतरे में पड़ जाते हैं। कहा भी गया है -
जउकुम्भे जोइसुवगुढ़े, आसुभितत्ते णासमुवयाइ।
एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति।। अर्थात् आग से लिपटा हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त होकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अनगार स्त्रियों के संवास से नष्ट हो जाते हैं। "
(6) सर्वस्व हानि - सूत्रकृतांग सूत्र में ब्रह्मचारी के लिए स्त्री संग को महान अनर्थकारी माना है। वृत्तिकार ने स्त्री संग को समस्त दोष का मूल कारण माना है। उनका मानना
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