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तो खतरे से खाली नहीं हैं। 2.2.1 स्त्री संस्तव के दोष - ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए स्त्रियों से सम्पर्क वर्जन अत्यावश्यक है क्योंकि यह एक बड़ा खतरा है। शास्त्रकारों ने स्त्रियों से अमर्यादित सम्पर्क के अनेक दोष दर्शाए हैं, जैसे
(1) शंका - सूत्रकृतांग सूत्र के वृत्तिकार ने स्त्री संस्तव का एक व्यावहारिक दोष दर्शाया है। उनका कथन है यद्यपि पुत्री, पुत्रवधू आदि के प्रति ब्रह्मचारी का चित्त कलुषित नहीं होता, फिर भी उनसे बढ़ता हुआ सम्पर्क देखकर दूसरे व्यक्तियों के मन में ब्रह्मचारी के चरित्र के प्रति शंका उत्पन्न हो सकती है। इतना ही नहीं, लोग उस स्त्री के प्रति भी दोष की शंका करने लग जाते हैं।
(2) अप्रियता एवं कोप - सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार स्त्री के साथ संपर्क करने से उसके रिश्तेदारों में अप्रिय भाव उत्पन्न होता है। वे कुपित भी हो जाते हैं।
(3) लोक निन्दा - स्त्री के अति सम्पर्क से लोक में ब्रह्मचारी की निन्दा भी होने लगती है। सूत्रकृतांग सूत्र के वृत्तिकार ने इस संदर्भ में एक श्लोक उद्धृत किया है।
मुण्डं शिरो वदन मेतदनिष्टगन्धं, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य।
गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वं शोभं,
चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा।। अर्थात् सिर मुंडा हुआ है। मुंह से दुर्गन्ध आ रही है। घर-घर में भिक्षा मांग कर यह अपना पेट भरता है, सारा शरीर मैल से मलिन और कुरूप हो रहा है। इतना होने पर भी आश्चर्य है कि इसके मन में काम भोग की अभिलाषा उठ रही है। 50
(4) स्त्री के वशीभूत होना - सम्पर्क बढने से आसक्ति बढ़ती है। आसक्ति से व्यक्ति स्त्री के वशीभूत हो जाता है। दसवैकालिक सूत्र की चूर्णि में स्त्री संसर्ग एवं उसके परिणाम का क्रमबद्ध निरूपण हुआ है। उनके अनुसार संसर्ग का प्रारंभ दर्शन से और उसकी परिसमाप्ति प्रणय से होती है। पूरा क्रम इस प्रकार है- दर्शन से प्रीति, प्रीति से रति, फिर विश्वास और प्रणय।
सूत्रकृतांग सूत्र में स्त्री के वशीभूत हो जाने वाले पुरुष की दारुण दशा का विस्तृत वर्णन मिलता है। वृत्तिकार ने इसका सुन्दर चित्र खींचा है। वृत्तिकार के शब्दों में
ददाति प्रार्थितः प्राणान्, मातरं हंति तत्कृते।
किं न दद्यात् न किं कृर्यात्स्त्रीभिरभ्यर्थितो नरः।। याचना करने पर वह अपने प्राण को भी दे देता है। प्रिया के लिए मां की हत्या भी कर
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