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है। सूत्रकार कहते हैं -
गायदिणच्चदिधावदि कसइ बवदि लवदि तह मलेई णरो। तुण्णेइ वुणइ जाचइ कुलम्मि जादो वि विसयवसो।।911।।
सेवदिणियादिरक्खदि गोमहिसिमजावियं हयं हत्थिं।
ववहरदि कुणदि सिप्पं सिणेहपासेण दढबद्धो।। 912।। अर्थात् उच्च कुल में जन्मा मनुष्य भी विषयासक्त होकर गाता है, नाचता है, दौड़ता है, खेत जोतता है, अन्न बोता है, खेती करता है, अनाज निकालता है, कपड़े सीता है, बुनता है।
स्त्री के स्नेहजाल में दृढ़तापूर्वक बँधा मनुष्य राजा आदि की सेवा करता है, धान के खेत में लगी घास को उखाड़ता है। गाय, भैंस, बकरी, भेड़, घोड़ा, हाथी आदि पालता है। व्यापार करता है, शिल्पकर्म-चित्रकला आदि करता है। 2.2(2) अनिश्चितता - मनुष्य भोग की अभिलाषा इंद्रिय सुखों के लिए करता है। लेकिन इंद्रिय सुख कभी निश्चित नहीं होते। प्रथम क्षण में जो सुख प्रतीत हो रहा है दूसरे ही क्षण में वही दुःख का कारण बन जाता है। आचारांग के अनुसार काम से पीड़ित व्यक्ति इस अनिश्चितता को समझ नहीं पाता। वह दुःख पाता हुआ भी सुख की लालसा में काम भोगों के अधीन हो जाता है।
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2.2(3) चिंता - आचारांग भाष्य के अनुसार अतिकाम सेवन और अवस्था प्राप्त होने पर शारीरिक शक्तियां क्षीण होने लगती हैं। विषयासक्त पुरुष विषय सेवन में असक्षम होने लगता है। यह देखकर वह चिंताग्रस्त हो जाता है। 35
युवावस्था में भी कामासक्त मनुष्य किंकर्तव्यता (अब यह करना है, अब वह करना है इस चिंता) से आकुल रहता है। वह सुख का अर्थी होने पर भी दु:ख ही पाता है। आचारांग वृत्तिकार ने विषयासक्ति से मूढ़ बने व्यक्ति के दुःख का चित्रण इस प्रकार किया है -
सोउं सोवणकाले, मज्जण काले य मन्जिऊं लोलो।
जेमेऊं च वराओ, जेमणकाले न चाएइ।। वह आकुलतावश शयन काल में शयन, स्नान काल में स्नान और भोजनकाल में भोजन नहीं कर पाता।
भगवती आराधना में कामग्रस्त व्यक्ति की चिंता का विशद वर्णन किया गया है। सूत्रकार कहते हैं कि वह अपनी हथेली को गाल पर रखकर दीन मुख से बहुत सी व्यर्थ चिंता किया करता है। काम चिंता का आंतरिक आतप इतना तीव्र होता है कि वह शीतकाल में भी पसीने से भीग जाता है। बिना कारण ही उसके अंग काँपते हैं। 2.2(4) मानसिक असमाधि (अशांति)- आचारांग में अब्रह्मचर्य को मानसिक असमाधि का
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